जितना करूँगा भौं-भौं, उतना मिलेगा पौं- पौं
गुरुवार, 18 नवंबर 2010
चुनाव
जितना करूँगा भौं-भौं, उतना मिलेगा पौं- पौं
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
जात पे ना पात पे, गीला मारो लाठ पे
गुरुवार, 20 मई 2010
पौधकुमार के चाचा "शमी" को जानो
यह राजस्थान का राज्य वृक्ष है; स्थानीय भाषा में इसे खेजडी कहते है तथा इसका वानष्पतिक नाम प्रोसोपिस सिनरेरिया है. — डॉ. हितेंद्र, वेब दुनिया से
शमी शनि ग्रह का पेड़ है. राजस्थान में सबसे अधिक होता है . छोटे तथा मोटे काँटों वाला भारी पेड़ होता है. कृष्ण जन्मअष्टमी को इसकी पूजा की जाती है . बिस्नोई समाज ने इस पेड़ के काटे जाने पर कई लोगों ने अपनी जान दे दी थी. यह पेड़ बरसात में अपने आप पैदा होता है . इस पेड़ के फल को सांगर और साँगरी भी कहते है. — के. सी. शर्मा, वेब दुनिया से
कहा जाता है कि इसके लकड़ी के भीतर विशेष आग होती है जो रगड़ने पर निकलती है ... इसे शिंबा; सफेद कीकर भी कहते हैं. — कुमार शिव, वेब दुनिया से
शमी अर्थात छोंकर या खेजड़ के वृक्ष का बल्लभ संप्रदाय में अधिक महत्व माना गया है। इस वृक्ष का महत्व केवल इस बात में नहीं है कि इसकी जड़, तना, छड़े पत्तियां आदि सभी काम आते हैं, इस वृक्ष का महत्व केवल इस बात में भी नहीं है कि राजस्थानी किसान की अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण आधार यह वृक्ष है। खेजड़ के पेड़ का नाम ही शमी वृक्ष है जिस पर महाभारत के युद्ध के समय बभ्रुवाहन का सर टांगा था. — श्री भावेश, वेब दुनिया
खेजड़ी : [विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से] वैज्ञानिक वर्गीकरण – जगत: पादप, विभाग: मैग्नोलियोप्सीडा, वर्ग: मैग्नोलियोफाइटा, गण: फैबल्स, कुल: फैबेसी, प्रजाति: प्रोसोपिस, जाति: P. सिनेरारिया, द्विपद नाम [प्रोसोपिस सिनेरारिया] .
खेजड़ी या शमी एक वृक्ष है जो थार के मरुस्थल एवं अन्य स्थानों में पाया जाता है। यह वहां के लोगों के लिए बहुत उपयोगी है।
इसके अन्य नामों में घफ़ (संयुक्त अरब अमीरात), खेजड़ी, जांट/जांटी, सांगरी (राजस्थान), जंड (पंजाबी), कांडी (सिंध), वण्णि (तमिल), शमी, सुमरी (गुजराती) आते हैं।
इसका व्यापारिक नाम कांडी है। यह वृक्ष विभिन्न देशों में पाया जाता है जहाँ इसके अलग अलग नाम हैं। अंग्रेजी में यह प्रोसोपिस सिनेरेरिया नाम से जाना जाता है।
खेजड़ी का वृक्ष जेठ के महीने में भी हरा रहता है। ऐसी गर्मी में जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह पेड़ छाया देता है।
जब खाने को कुछ नहीं होता है तब यह चारा देता है, जो लूंग कहलाता है। इसका फूल मींझर कहलाता है। इसका फल सांगरी कहलाता है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है। यह फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है।
इसकी लकडी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है।
इसकी जड़ से हल बनता है।
अकाल के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है।
सन १८९९ में दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे।
इस पेड़ के नीचे अनाज की पैदावार ज्यादा होती है।
शनिवार, 15 मई 2010
पौधकुमार का हैप्पी बरडे कब मनेगा?
अब मैं सोच रहा हूँ. क्या पेड़-पौधों को नींद में सपने आते होंगे? अगर मुझे याद रहा तो कभी चुपचाप पौधकुमार से ही पूछूँगा कि तुमने कल रात क्या सपना देखा?
बुधवार, 28 अप्रैल 2010
खेलगाँव के पिछवाड़े पौधकुमार का जन्म
शनिवार, 24 अप्रैल 2010
ज्योतिषी पंडित पीपल प्रसाद जी का रत्नज्ञान
पंडित जी ने अपनी छाँह तले एक साइकिल-दुकान को आश्रय दिया हुआ था. जो पेड़ अपनी जवानी में लोगों के अधूरे अरमानों को पूरा करने वास्ते कभी लाल धागों से लिपटा रहता था आज समय के फेर ने उसे अपनी शाखाओं में स्कूटर-साइकिल के टायर-ट्यूब पहनने को मजबूर कर दिया था. लेकिन पंडित जी हर स्थिति को अपने अनुकूल बनाने में सिद्धहस्त थे. उन्होंने इसे रत्नों की महिमा के गुणगान में प्रयोग किया.
"पहले मैं नर्वस रहता था. मन में सदा घबराहट बनी रहती थी. भाग्य के कपाट बंद थे. कोई पक्षी मुझ पर बसेरा करने को राजी ना था. तने पर कुत्ते मूतते थे, डालों पर गिद्ध बैठते थे. उल्लू कोटर बनाने को उतावले दीखते थे. लेकिन अब... अब बिलकुल ऐसा नहीं है."
"जिसके तने में जितनी ज़्यादा मोची कीलें ठुकीं हों वह उतना ही आत्म-विश्वास से भरा रहता है. साइन बोर्ड वाले वृक्षों का हाजमा सही रहता है और टायर-ट्यूब पहनने वाले वृक्ष तो सदा संत-स्वभावी होते हैं, उनपर कभी दुष्ट शनि [लकडहारे] की वक्र दृष्टि नहीं पड़ती."
"और यदि किसी पेड़ को रात में 'आदम बच्चों को झूला झुलाने के' सपने आते हों तो वे अपनी सबसे निचली शाखा में दो मोटर-साइकिल के टायर पहनें. इससे सपने आना बंद हो जायेंगे. आदम बच्चे पास आकर खड़े होने लगेंगे."
"और यदि कोई पेड़ अपने छरहरे होने के बावजूद किसी लतिका को सहारा देने की इच्छा पूरी नहीं कर पा रहा है तो वह दिन में दो बारी अपनी शाखाओं पर जंगली कौवों को बैठा कर नीचे निकलते श्वेतवस्त्रधारी राहगीरों पर बीट से अर्घ्य दिलवायें. मनोकामना शीघ्र पूरी होगी."
पंडित जी आसपास बसे घरों के छज्जों से झाँक रहे गमल-गुल्मों को भी प्यार से देखते थे और उनको उनकी "थोड़ी मिट्टी, थोड़ा पानी" वाली किस्मत पर धीरज रखने को कहते. उन्हें कहते "तुम यदि तुलसी गमले पर सुबह-शाम जलने वाले दीपक का कार्बन-प्रसाद ग्रहण कर पाओ तो वह तुम्हारे उद्धार में सहायक होगा. "
इस तरह पंडित पीपल प्रसाद धीरे-धीरे वृक्ष-समाज में अपनी जगह बनाने लगे.
शेष अगले अंक में...
मंगलवार, 20 अप्रैल 2010
पानी की गाड़ी
गुरुवार, 15 अप्रैल 2010
जब जागो तभी सवेरा
एक बड़े संत की एक बड़ी भक्तन थीं — बड़ी धार्मिक बड़ी कर्मकांडी. एक बड़े परिवार के मुखिया की मुखनी थीं. नाम था सूर्यमुखी. संत ने गुरुमंत्र देकर पूरे परिवार को दीक्षित किया था. सभी के गले में लटकते लॉकेटों से प्रतीत होता कि यह भी शरीर का ही अवयव है. नवजात शिशु के गले में भी जब वही लौकेट देखा तो लगा कर्ण के कवच-कुंडल की भाँति यह बालक भी अपने साथ लौकेट लेकर पैदा हुआ है.
प्रातः सूर्य के एक बाँस ऊपर आ जाने के बाद से ही दिनचर्या का प्रारम्भ होता — लगभग सात-आठ बजे से.
घूमने का शौक उनके परिवार को एक दिन भारत के पूर्वी छोर पर ले गया. सभी प्राकृतिक छटा का भरपूर आनंद लेते हुए गए. अगली प्रातः को जब सूर्यमुखी की नींद खुली तो सूर्य पूरा निकल आया था लेकिन घड़ी अब भी चार बजा रही थी. सभी बच्चों की नींद खुलने लगी थी. विधाता की लीला जान वह उन्हें किसी चमत्कार से कम ना लगा. सो सभी बच्चों को फिर से सो जाने का आदेश किया कि अभी तो सुबह के सात बजने में काफी देर है.
उन्हें शायद ज्ञात नहीं था कि जैसे-जैसे पृथ्वी के पूर्व में जायेंगे तो घड़ी समय से आगे होती जायेगी अथवा सूर्य का निकलना क्रमतर पहले होता जाएगा.
अतः "जब जागो तभी सवेरा"
[शिक्षा : देश-काल-वातावरण के अनुकूल अपनी क्रियाओं में फेर-बदल करना चाहिए. ]
बुधवार, 14 अप्रैल 2010
प्राकृतिक जीवन सहज है...
सभी प्राणी बिना अवरोध जी रहे हैं. सभी को सब प्रकार का सुख है. जिसके चरण नहीं वह बिन चरणों के ही तीव्रता से रेंग लेता है. जिसके चरणों में गति नहीं वह भी पंखों से आकाश नापकर इच्छित स्थान पर आता-जाता है. दाँत, नाखून, मुखाकृति, पाचन-तंत्र आदि शरीरावयव सभी प्राणियों को उनकी आवश्यकतानुसार ही मिले हैं.
ढूँढने से भी नहीं मिला उन्हें कोई अभावग्रस्त. उन्होंने मनुष्यों में भी ऐसा ही पाया लेकिन रो वही रहे थे, दुखी वही थे जिनकी इच्छाएँ अनावश्यक रूप से विकास किये थीं.
निष्कर्षतः प्राकृतिक जीवन सहज है यदि इच्छाएँ सीमित हैं.
मंगलवार, 13 अप्रैल 2010
बरगद शाखी
पेड़ ने कहा — भैया, वो कैसे? मैं वटवृक्ष की तरह कैसे दिख सकता हूँ? अगर दिखने भी लगूँ तो क्या आदम समाज मुझे वट मानेगा? पूजा करेगा?
पोल बोला — महीने दो महीने में देखना धडाधड बेनर लगेंगे, और हटेंगे-फटेंगे. उन सभी बैनरों की डोरियाँ तुम्हें वट बना देंगी. सड़क पर सोने वाले और प्रचार की प्रतिस्पर्धा में पड़े अपने लिए सही जगह ढूँढने वाले दोनों प्रकार के लोग इसमें सहयोग करेंगे. गरीबों को तन ढकने को कच्छा, कुर्ता, टॉयलेट के लिए पर्दा सब इसी कपड़े से मिलता है. चुनाव सर पर हैं तुम्हारी तो मोज ही मोज आने वाली है.
पेड़ ने कहा — अरे भैया, क्यों गरीब पेड़ का मज़ाक बनाते हो. आदमी बहुत समझदार प्राणी है. असली-नकली की उसे पहचान है. मेरा ये मुखोटा वह झट पहचान लेगा.
पोल बोला — आदम समाज धीरे-धीरे पेड़ों के नाम, उनकी असल पहचान को भूलता जा रहा है. उसे केवल रेपर नोलिज ही चाहिए. वह ज्ञान के नाम पर वस्तु और प्राणी आदि को कुछ विशेषताओं से ही काम चलाने लगा है. आदमी को आज केवल फल खाने से मतलब रह गया है, पेड़ गिनने से नहीं, और ना ही उसकी समस्याओं से उसको कोई लेना-देना है. तुम अपना वट बनो और सम्मान पाओ. कुछ दिनों में देखना भक्ति में अंधे हुए नयी पीढ़ी के लोग तुम्हारे चारों ओर चबूतरा बनायेंगे, मनौती का कलावा लपेटने लगेंगे. दीपक जलाएंगे, प्रसाद चिपकायेंगे, लटकती सुतलियों पर अपने अपूर्ण अरमानों की ग्रंथियाँ बांधते जायेंगे. तब तुम मुझे मत भूल जाना. क्योंकि तब तक मेरा होलिजन लाइट बल्ब फ्यूज़ होकर गिर चुका होगा. या, उसमें किसी कौवे ने घोंसला कर लिया होगा या, मरे पतंगों की भरमार से मेरा लाइटिंग कवर भर चुका होगा.
तुम शीघ्र बड़े और महान होने वाले हो, मुझे भूल मत जाना मेरे दोस्त. आने वाले चुनाव का फायदा उठा लो. मौक़ा हाथ से गया तो जल्दी बरगद नहीं बन पाओगे.
शेष अगले अंक में.
[मैंने अभी "तेल का कुआँ" रोका हुआ है. जिसे मौक़ा मिलने पर बढाया जाएगा. ]
शनिवार, 10 अप्रैल 2010
तेल का कुआँ
प्रसाद जी को यूँ आँसू बहाता देख 'मिटटीशरण' नामक एक पुराने गहरे कुएँ ने कहा — प्यारे डिगबोई! तुम्हें व्यर्थ में इस तरह आँसू नहीं बहाने चाहिए. तेली कुएँ की तो कीचड़ भी कीमती होती है ये तो फिर भी आँसू है. इनसे क्यों नहीं तुम एक काव्य की रचना कर डालते. दुःख के इन अन्तरंग भावों को पुंजीभूत कर एक नयी सप्लाई क्यों नहीं देते. जैसे तुम कह सकते हो — "जो सटी कूप नलिका थी/ बिलकुल अन्दर तक आयी/ किल्लत में फट जाने पर/ हो गयी बंद सप्लाई."
प्रसाद जी को जैसे दिशा मिल गयी. मन पुनः नवीन उमंग से तरंगित हो उठा. मन के तैलीय मवाद को डिगबोई ने कुछ 'तैल-काव्य' प्रस्फुटित करने के बाद अपने को शांत अनुभूत किया.
इस तेल भरे कुएँ में
अब नलिका नहीं उतरती
तरबतर तेल से तो भी
प्यासी लगती हैं धरती.
आती है रिक्त कुएँ से
क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी
टकराती झन्नाती-सी
पगली-सी देती फेरी.
भर-भरकर सारे भाण्डे
पी-पीकर प्यारी नलिका
आ-आकर चूसे जाती
दिखला यौवन की कलिका.
दो दर्पण हुए परस्पर
करते छाया-प्रतिछाया
हो गयी न जाने कितनी
उनके बिम्बों की जाया.
खैर, तैल-काव्य तो लंबा चला. बहरहाल डिगबोई प्रसाद जी काव्य रचनाकर्म से संतुष्ट नहीं हुए. मानव रुपी विधाता की इच्छा ने उनका पुनःगठबंधन एक नवीन पाइपलाइन से कर दिया. सप्लाई पुनः प्रारम्भ हो गयी.
शेष अगले अंक में...
गुरुवार, 8 अप्रैल 2010
हमारी आवाज सुनले बेटा!
"राम नाम सत्य है"
मंगलवार, 6 अप्रैल 2010
रिक्शा क़ानून क्यों तोड़ता है...
जब वे दोनों फाटक प्रहरियों के पास से गुजरीं जहाँ उन्हें गले मिलती एक सड़क ने रोका. दोनों फाटक प्रहरी अपने दोनों ओर गाड़ियों को रोके खड़े थे. लेकिन कुछ कार वाले अपने आगे खड़े रिक्शे वालों को बुराभला कहते धमका रहे थे. रेलबाला ने एक कार में से आती आवाज सुनी —
"अबे हट बिहारी, अपना एरोप्लेन हटा."
रिक्शेवाला बोला — "साहब आगे फाटक बंद है. थोड़ा धीरज रखिये."
कार से आवाज आयी — "सान्नू धीरज दा पाठ सिखाएगा. तू शिक्षामंत्री है. हट जा (अपशब्द!) नहीं तो पोस्टर बना दूंगा. मैंन्नू जल्दी है, फ़ालतू की गल ना कर."
रिक्शे वाले के रिक्शे पहिये की कुछ तारें जब टूट गयीं तब दर्द के मारे रिक्शा फाटक के नीचे से निकलने लगा. रेलबाला चिल्लायी — देख पटरी बहन, ये क्या कर रहा है, अभी ट्रेन आने वाली है और ये रिक्शा अपनी जान जोखिम में डाल रहा है.
पटरीरानी बोली — ये बिहारी इन हालातों में ही नियम तोड़ते हैं और गवर्नरी गुरूर पाले ओवरब्रिज बोलते हैं कि ये बिहारी नियम तोड़ने में अपनी शान समझते हैं. क्या इसी तरह के कुछ दूसरे प्रान्तों से सम्बंधित सूत्रवाक्य नहीं बनने चाहिए?
रेलबाला बोली — बहन तुझ पर गाडी आ रही है, ज़रा अपने नट-बोल्ट सहित तैयार होकर उसे अगले स्टेशन तक सुरक्षित पहुँचाओ.
कुछ देर तक धडाधड आवाज करती एक जनशताब्दी गुजर जाती है. फाटक प्रहरियों के डंडा हटाने से पहले ही रेलबाला और पटरीरानी आगे बढ़ जाती हैं क्योंकि वहाँ रोजाना की तरह प्रांतवाद वाली गालियों की बौछार होने वाली थी.
[शेष अगले अंक में ....]
शनिवार, 3 अप्रैल 2010
कल्लोमाई को पहचानो
बुधवार, 31 मार्च 2010
तेजू भाई से मुलाक़ात
रास्ते में ओवरब्रिज, पुलिया नदी-नाले तो कई मिले लेकिन उन्हें तो दिल्ली के एक घमंडी ओवरब्रिज से मिलना था। दिल्ली शहर में घुसीं और तब देखे उन्होंने मेट्रो दीक्षित के जलवे और ओवर ब्रिजों का नज़ारा।
रेलबाला ने पटरीरानी को उस ओवरब्रिज से मिलवाया। नमस्ते हुई।
रेलबाला ने कहा — ये तेजू भाई हैं, इन के कारण यातायात की गति तेज़ हो गयी इसलिए सभी इन्हें तेजू खन्ना कहते हैं। और तेजू भाई, ये मेरी सहेली है, आपको जानती नहीं थी सो मिलवाने ले आयी।
तेजू खन्ना बोले — ए! तुम मुझे भैया-वैया मत कहो। मैं तुमसे पहले भी मना कर चुका हूँ। मैं दिल्ली की जानी-मानी हस्ती हूँ। मैं समस्त दिल्ली की सड़कों का प्रमुख हूँ। मेरी हैसियत गवर्नर से कम नहीं। कोई बिहारी-शियारी या पुरबिया-शुरबिया होता तो मैं "आम रास्ता नहीं का बोर्ड लगाकर" लात मारके बाहर करता। क्योंकि तुम ब्यूटीफुल हो इसलिए बात कर रहा हूँ। तुम मुझे मिस्टर तेजू ब्रिज कह सकती हो।
तुहें मालूम है — दिल्ली में बस दुर्घटनाएँ क्यों हुईं? इन नोर्थ इंडियंस सड़कों और राजमार्गों ने दिल्ली में घुसकर नियमों का पालन नहीं किया। जगह-जगह क़ानून तोड़े। जहाँ मन आया वहाँ से निकल पड़े और शहरी मार्गों से मिल गए। इनके कारण हमारी यातायात व्यवस्था बिगड़ गयी। एक्सीडेंट बड़े। हादसे हुए। लोग मरे। इल्जाम हम पर आया।
मैं तो कहता हूँ कि 'दिल्ली' देश की ऎसी राजधानी हो जिसकी सड़कों के किनारे मॉल हों, बिजनिस कॉम्प्लेक्स हों। चमाचम लाईटिंग हो। सब्जी मंडियाँ और लेबर चौक जाने वाले रास्तों की ओर सड़कें न जुडी हों।
ब्रिज हों तो अपार्टमेंट्स से, मॉलों से जुड़े। या, ओफिसिज़ कि ओर खुले। पब्लिक स्कूलों की ओर मुँह किये या पिकनिक स्पोटों की ओर बाँह फैलाए। कुछ दिनों में देखना मैं इन ऐरे-गेरे राह चलते रास्तों का दिल्ली में घुसना बंद कर दूँगा। हर रास्ते पर अपना आई कार्ड होगा, साइन बोर्ड होगा। जिन पर नहीं होगा, मिटा दिए जायेंगे।
पटरीरानी सुनकर तिलमिला गयी। बोली — मैं सब जानती हूँ। कौन क़ानून तोड़ता है। जहां फ़ायदा देखा नहीं उसी के हो लिए। क्या मैं जानती नहीं। शहर की सड़कें जितनी अपने को सभ्य कहती हैं उनके भीतर कितने गटर, कितनी नालियाँ बहती हैं। और सबके सब कहाँ जाते हैं, किसे गंदा करते हैं। मुझसे तो नहीं छिपा। बेशक तुम अपने को पौश या संभ्रांत कहो लेकिन तुम जैसे कितनों ही के कारण भूजल की समस्या ने विकराल रूप ले लिया है, बारिश भी होती है तो बाढ़ का कारण बनती है। जहाँ पानी कि ज़रुरत है वहां पानी जाता नहीं। भूजल स्तर नीचे और नीचे आता जा रहा है। उसपर तुम रैनी वैल की बात करके हल निकाल लेने की बात करते हो। तुम एक तरफ तो पर्यावरण हितैषी बनते हो दूसरी तरफ तुम जैसों के ही कारण देश के साफ़-सुथरे पर्यावरण में पान्त्वाद का प्रदूषण फ़ैल रहा है। मैं सब जानती हूँ — इन दिनों कितने पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं। मेट्रो-सिटी बनाने का नाम पर क्या खेल खेला जा रहा है, क्या मैं जानती नहीं। तुम केवल यहाँ पर गाडी कि जगह गड्डी चलाने के हिमायती हो। आने वाले सालों में देश-विदेश कि सड़कों की कबड्डी करवानी है इसलिए इन्हें छोटी-छोटी सड़कों, पगडंडियों और देहाती रास्तों को मिटाने की सूझी। इनसे इनकी इज्ज़त खराब हो रही है। मालूम होना चाहिए कि बड़ी सड़कें तब तक ही बड़ी हैं जब तक छोटी सड़कों और पगडंडियों का वजूद है। तुम घमंड से इतना फूल चुके हो कि धरती के अन्दर पड़ रही दरारों को नहीं देख पाते। कभी चरमराकर गिरोगे तब होश ठिकाने आयेंगे। बनावटी सड़कें, पुल, मॉल सब एक साथ बोलेंगे (नष्ट होंगे) और अपने देसी रास्ते ही तुम्हे राह दिखाएँगे। चल बाला! इस घमंडी की कारिस्तानी से दुखी नदी से तुझे मिलाती हूँ। तब करना इस पर्यावरण प्रेमी से दोस्ती।
शेष अगले अंक में....
रविवार, 28 मार्च 2010
लोहे की सड़क
एक बार पटरीरानी ने रेलबाला से कहा — बहन सुना है दिल्ली शहर में "मेट्रो" दीक्षित-हिरोइन बनकर अपनी चकाचौंध से सबका दिल जीत रही है। उसके लिए तो काफी धन खर्च किया जा रहा है। उसके रहने के लिए आलीशान, शानदार यार्ड-व्यवस्था हो चुकी है, घूमने-फिरने के लिए खूबसूरत बहनों का संग है। लेकिन हमारी बुरी दशा पर किसी किसी ने विचार नहीं किया, किसी को ममता नहीं आई।
रेलबाला ने पटरीरानी से कहा — हमें तो मुंबई की बार बालाओं की तरह समझ रखा है। कभी भी कोई भी आकर हमें बुराभला कह जाता है। ज़रा सोचो, क्या सच में हमारा जीवन उन बालाओं की तरह नहीं है जिनकी नग्नता 'अश्लीलता की हद' कहकर प्रतिबंधित कर दी जाती है; जेल में, सुधार-गृहों में भेज दी जाती है। दूसरी तरफ इन फिल्मी हीरोइनों की नग्नता कला की मांग कहकर सराही जाती है, फिल्मफेयर अवार्ड पाती है, जिसे सभ्य समाज आत्मसात करता रहा है। इन दोहरे मापदंडों से मुझे काफी चिढ है, खीज है। इस चिढ़ और खीज से मेरा गुस्सा कभी-कभी इतना बढ़ जाता है कि मुझसे लापरवाही हो जाती है और रेलदुर्घटनाएं हो जाती हैं। मुझे लगता है कि बार बालाओं को भी ऎसी खीज होती होगी जिसके कारण उनमे अपराध मानसिकता पनपती है, गुनाह होते हैं, अच्छे-भले घर बिगड़ते हैं।
पटरीरानी बोली — सच कहा बहन, ऎसी भेदभावपूर्ण नीति से तो मन खट्टा हो जाता है और उखड़ने का मन करता है। लेकिन इन बढ़ती दुर्घटनाओं को देखते हुए कोशीश करती हूँ कि जगी रहूँ और अपनी क्षमता से अधिक इन गाड़ियों को सुरक्षित पहुंचाती रहूँ।
रेलबाला ने कहा — हमारे हिस्से का पैसा जब तक हम पर पूरी तरह खर्च नहीं किया जाएगा तब तक हम कैसे जगी रह सकती हैं। बहन चलो, बाद में बात करूंगी, सामने का सिग्नल हरा हो गया है। ट्रेन आने वाली है। उसे सुरक्षित दूसरे स्टेशन तक पहुंचा दूँ। थोड़ी देर में मैं तुझे एक घमंडी ओवरब्रिज से मिलवाने ले चलूंगी।
पटरीरानी बोली — ठीक है, लगता है मेरा भी सिग्नल हरा हो गया, कुछ देर में मुझ पर भी गाड़ी आने वाली है, मैं ज़रा अपने नट-बोल्ट ठीक-ठाक करके तैयार हो जाऊं।
तभी दोनों तरफ से दौडती-भागती गाडिया आने-जाने लगीं। इतना शोर हुआ कि बेचारी दोनों सड़कों की जान निकलने लगी। अभी ना जाने कितनी ऎसी गाड़ियाँ आने वाली थीं।
दोनों ही अपने नट-बोल्टों कि छोटी-छोटी दरारों को बार-बालाओं की चोट समझकर मिट्टी और धूल से भरकर हँसते हुए ओवरब्रिज से मिलने चल दीं।
शेष अगले अंक में...
शुक्रवार, 26 मार्च 2010
दो शब्द
प्रारम्भ से ही मेरी इच्छा कम बोलने वाले और चुपचाप रहने वाले साथियों से संवाद की रही। धीरे-धीरे यही इच्छा संकोचवश कविता लेखन के दौरान काल्पनिक कथोपकथन के रूप में विकसित हो चली। इसके बाद अर्थोपार्जन के समय व्यावसायिक अनवरतता न रहने से, रुचि व योग्यतानुरूप रोज़गार न मिलने से, ब्रेकेबल सर्विसेज़ के लम्बे ब्रेक काल में मानसिक तनाव से मुक्ति पाने को 'स्वगत कथन' की इच्छा प्रकृति की गोद में जा बैठी। फिर यही इच्छा पेड़-पौधों, पोखर-नदियों, रास्तों, पुल, बाँध पर्वत, मिट्टी... आदि सभी मूक जड़ वस्तुयों से पागलपने की हद तक बात करके सुख पाने लगी। उनमें मानवीय चरित्रों की परिकल्पना करने लगी, उनके कम्पन, उनके ठहराव, उनकी क्रियाओं, उनके परिवर्तनशील रूपों का व्याकरण अनुमानित करने लगी।
काफी समय से इन्हीं सबका पुंजीभूत रूप पुस्तकाकार रूप लेने को आतुर था। और आज वह आतुरता उन सब इच्छाओं को कहानी रूप में इंटरनेटीय ब्लॉग के ज़रिये आपके मोनिटर पर लाने में कुछ विराम पाती है। इसके लिए आभार उन परिस्थितियों और परिवेश का जिसमें कहानी पात्रों के सम्बन्ध में विस्तार से लगातार चिंतन का क्रम बनाए रखा। इनमे दो स्थितियां आज भी योगदान दे रहीं हैं - पहली, चार्टर्ड बस में खिड़कीवाली पिछली सीट जहां ऑफिस आते जाते प्रकृति चिंतन बिना व्यवधान हो जाता है। और दूसरी, कार्यालय में चिंतन की उड़ान भरने का भरपूर अवसर।
अपनी प्रियंवदा का सहयोग और उत्साह वर्धन के बिना इस ब्लॉग को शुरू करना संभव नहीं था। इसके लिए उन्हें ब्लोगर धर्म के नाते धन्यवाद देता हूँ।
आज २७ मार्च २०१०, दिन शनिवार को मैं संकल्प करता हूँ कि जब भी अवकाश मिलेगा "राम कहानी" में कोई-ना-कोई कहानी अवश्य जोडूंगा।