गुरुवार, 18 नवंबर 2010

चुनाव


कथा का मुख्य शीर्षक : 
जितना करूँगा भौं-भौं, उतना मिलेगा पौं- पौं


[१] सच्चा स्वानतंत्र
एक पहाड़ी तलहटी में कुत्तों का समाज रहता था. उस समाज में जातपात, छुआछूत और अंधविश्वास बहुत फैला था. इस कारण वे आपस में मिलजुलकर नहीं रहते थे. ज़रा-ज़रा सी बात पर मरने-मारने को उतारू हो जाते. पंडित कुत्तों को बिलकुल पसंद नहीं था कि जाटव, गुप्ता, खान और सिंह बिरादरी के कुत्ते आकर उनके भाई-बहनों और बेटे-बेटियों से मेलजोल बढ़ायें. इसलिए पंडित भयंकर शर्मा ने अपनी बिरादरी के बच्चों के लिए अलग पाठशाला खोली हुई थी. 

दूसरी तरफ सिंह बिरादरी के कुत्ते भी नहीं चाहते थे कि उनके द्वारा चिहनित (कोडिड) खम्बे और पेड़ों को कोई दूसरी बिरादरी के कुत्ते टांग उठाकर गीला करें. 

जाटव और पासवान बिरादरी के कुत्तों ने झूठन और मल पर एकाधिकार के लिए हमेशा लड़ाई की. उन्होंने कुत्ता-सरकार से माँग की कि उनके अधिकार वाले कार्यों में ऊँची बिरादरी के कुत्तों की दखलंदाजी बंद करवायी जाए. साथ ही, सवर्ण बिरादरी के कुत्ते जो हजारों सालों से दलित कुत्तों का हक़ मारते आए हैं अब उन्हें पचास प्रतिशत का आरक्षण दिया जाए. इसके बाद ही कुत्तों का निचला दलित तबका उन्नति कर सकेगा. सच्चे मायने में स्वानतंत्र भी तभी आयेगा.


[2] पट्टासिंह का पट्टा
पट्टासिंह 'सिंह' बिरादरी के होने के साथ-साथ समस्त कुत्ता समाज के सरदार थे. वह 'काट के रेस पार्टी' से चुनकर आए थे. सरदार बनने से पहले वह बुलडोगों की बैंक के रखवाले और वर्ल्ड कुत्ता वेफेयर सोसाइटी के जनरल सैकेट्री रह चुके थे. इसलिए वह बुलडोगों, जेबी डोगों, अलशेसियन, जर्मन शेफर्ड आदि सभी तरह के कुत्तों से उनकी पहचान थी. काट के रेस पार्टी ज्वाइन करने से पहले सरदार पट्टासिंह 'कूकर बैंक' के गवर्नर रह चुके थे. 

पट्टासिंह के सरदार चुने जाते ही समस्त पट्टेधारी कुत्तों ने 'काट के रेस' पार्टी से पर्षों पुरानी दुश्मनी भुला दी क्योंकि पट्टेधारियों को उम्मीद जगी कि अब उन्हें भौंकने, गुर्राने, दौड़ाने और काटने के ज़्यादा अवसर दिए जायेंगे. लेकिन ऐसा कुछ न हो सका क्योंकि पट्टासिंह का पट्टा 'काट के रेस' पार्टी का खानदानी पट्टा था. 

इस पट्टे को सभी 'काट के रेसी' सलाम करते और उसके पहननेवालों के नाम पर अपनी एकजुटता दिखाया करते. 'काट के रेस' पार्टी में समय-समय पर दबंग कुत्तों ने उस पट्टे को पाने की चाहत की लेकिन एक गूंगा कुत्ता ही अपने इरादे में सफल हो पाया. बीच में एक बार भौंभोंपा की सरदारी आ गई लेकिन चुनावों के बाद काटकेरेसी फिर से सरदारी पाने में सफल रहे. इस बार एक दूसरा सफल कुत्ता पट्टासिंह निकला जिसने 'सरदारी का समय' बिना भौंके, बिना काटे गुजार दिया. यह तब की बात है जब भौंभौंपा की सरदारी थी और अति उत्साह में उन्होंने कुछ निर्णय लिए जैसे जल्दी चुनाव का. 


[3] चुनाव
अब आगे ...
चुनाव होने वाले थे. इस बार चुनावों में सभी पार्टियों ने अपने-अपने उम्मीदवार उतारे थे. मुख्यतः दो पार्टियों में मुकाबला था 'काटो दौड़ो पार्टी' और 'भौंको भौंको पार्टी' के बीच. इनके अलावा क्षेत्रीय पार्टियाँ - बहुस्वान समाज पार्टी, स्वान्दल, मारो काटो पार्टी, भारतीय भागमभाग पार्टी ने भी जोर अजमाइश के इरादे से दोनों बड़ी पार्टियों को तगड़ी टक्कर देने के लिए तैयारियाँ शुरू कर दीं. 

चुनाव से पहले तक भौंभौंपा की सरदारी थी लेकिन इस सरदारी को चला पाना मुश्किल हो रहा था क्योंकि करी क्षेत्रीय टोलियों की मदद से ये सरदारी खींची जा रही थी. कई स्वभाव वाले कुत्तों का जमावड़ा होने से सरदार 'अड़ियल शिकारी' जो केवल भौंकने में भरोसा करते थे, काटने, गुर्राने, दाँत निपोरने जैसी हरकतों को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे. 

इसी कारण 'लालकाले धब्बेवाले' भौंकवानी कुत्ते ने एकक्षत्र सरदारी के लिए राष्ट्रीय योजना बनायी. भारत गुदय, इंडिया स्टूलिंग और सीनातान रतियात्रा के द्वारा हम पूरी सरदारी पर काबिज हो पायेंगे - ऐसा सब्जबाग़ सभी भौंभौंपा के कुत्तों ने देखा. 

लेकिन विधाता का लेखा ...! जो किसी ने नहीं देखा तो भौंभौंपा के कुत्तों ने भी नहीं देखा था. यहाँ तक कि दूरदर्शी लालकाले धब्बेवाले भौंकवानी ने भी नहीं देख पाया. अच्छी-भली सरदारी 'गुदय', 'स्टूलिंग' और 'रतियात्रा' की भेंट चढ़ गयी. कोई बात नहीं. इस बार के चुनावों में भौंभौंपा के कुत्ते फिर प्रयास करेंगे. 

मीटिंग हुई. ज़मीनी काम पर जोर दिया गया. मीटिंग में पार्टी प्रमुख भौंकवानी ने कहा — सदस्यता अभियान चलाया जाए. अल्पसंख्यक कटखने कुत्तों को भी पार्टी में शामिल किया जाए. टिकट देने में सभी वर्ग की मानी कुतियाओं को भी प्रतिशत इलाकों में सार्वजनिक स्तम्भ ढूँढ़े जाएँ. मरियल, बीमार और विकलांग कुत्तों से हमदर्दी दिखायी जाए. एक इलाके से दूसरे इलाके में जाने के इच्छुक विनम्र कुत्तों को पेम्पूर्वक सूँघकर भौंभौंपायी खुद गंतव्य तक छोड़कर जाएँ. ऐसे लाचार कुत्तों को 'काट के रेसियों' से बचायें. मदद करते समय सदस्यता के लिए प्रेशर ज़रूर डालें. प्रेशर बहुत ज़्यादा प्रेम से डालें. 

आने वाले तीव्र गंध के मौसम में लाल खुले मैदान में भौंक भौंक पार्टी का बड़ा 'स्वान सम्मलेन' होना तय हुआ जिसमें भौंकवाणीजी का जोशीला भौंक-भाषण होगा. अधिक से अधिक स्वान्बल के साथ पहुँचने का सभी पार्टी सदस्यों को निर्देश ज़ारी हुआ. 

तीव्र आम की गंध देने वाला मौसम आ गया. भौंकवाणीजी  लाल खुले मैदान में 'सीनातान' का नारा लगाते हुए चढ़े. भौंकवाणीजी ने देखी - भौंक-जयकारा लगाती हुई स्वानभीड़. मन गदगद हो उठा, तन-बदन जोश से और नयी उमंग से भर गया. 

बोले — मेरे वान भाइयो! भौंभौंपा के सच्चे कर्मनिष्ठ वफादारो! अपने-अपने इलाकों में रात-दिन भौंको. ज़रा-सी आहट पर भौंको. यदि तुम्हारे इलाके में रात को कोई आदम चौकीदार घूमता हो तो चौकीदार से तेज़ भौको. इतना भौको कि चोरी का, सीनाजोरी का, हरामखोरी का, हरकत छिछोरी का, या पार्टी छोरी का - कोई भी, कैसा भी विचार किसी के दिमाग में ना आने पाए. सभी भौंभौंपा के वफादारों को मालूम होना चाहिये और हमारे कूकरशास्त्र में भी आया है - जितना करेंगे भौं-भौं[ उतना मिलेगा पौं-पौं. अर्थात हम जितना भौंकेंगे, उतना ही सफल होंगे. जितना बोलेंगे उतना पायेंगे. आप यहाँ पौं-पौं का मतलब साधन या गाड़ी से भी ले सकते हैं. गाड़ी तभी मिलेगी जब भौंकोगे. 

याद रहे - पड़ने वाली पहली बारिश से पहले कुत्तम मीनार को अपने अनमोल वॉट'र से टांग उठाकर कुकुरमुत्ते वाले निशान पर वॉटिंग दें . आप भूलकर भी सामने की लाठ पर पिचकारी न मारें. जल्द ही हमारी फिर सरदारी होगी. इस बार भारत गुदय और इंडिया स्टूलिंग का लाभ सबको मिलेगा. कुछ मीडिया के कुत्ते पूछ रहे थे कि क्या मेरे और अड़ियल शिकारी के बीच सरदारी को लेकर झगड़ा है? मैं इस बात के जवाब में कहना चाहूँगा कि - नहीं है, ये कोशिशें 'काट के रेस' वाले और भागमभाग वाले कर रहे हैं. वे हमारी बढ़ती ताकत से घबराए हुए हैं. मेरा अनुरोध है कि हमें हमारी ताकत को इसी तरह एकजुट रखना है. जय भारत, जय भौंभौंपा. 

सन्देश — जितना करोगे शोर, उतना दिखेगा जोर. 

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

जात पे ना पात पे, गीला मारो लाठ पे

पट्टासिंह के सरदार बनने से बहुत पहले से काटकेरेस पार्टी का एक नारा था — "जात पे ना पात पे, गीला मारो लाठ पे". ये नारा पीढ़ियों से चला आ रहा था. पूँछउठी अडंगी की फैमिली ने अपने जीवनकाल में काफी जिहालत उठायी थी. असल जिहालत जिसने देखी थी और जिहालत को दूर करने की असल कोशिशें जिसने कीं उन कुत्ते भाइयों की टोली मौत के आगोश में जा चुकी थी.

अब बची थीं दो टोलियाँ — पहली, जाँबाज कुत्तों की 'सरदारी' से उदासीन टोली जो सारी ताकत इलाके की आजादी में झोंक चुकी थी और जो अब पूरा आराम चाहती थी. दूसरी, मरे हुए जांबाज कुत्तों की शहादत गाथा गाने वाली चेहरा दिखाऊ फायदा उठाऊ टोली. 

भारतीय कुत्ता समाज की आजादी के लिए फिरंगी कुत्तों की टोली को कितने ही जांबाज कुत्तों ने अपनी जान की परवाह किये बगैर वापस उनके इलाके में खदेड़ दिया था. लेकिन इस किये का मेडल मिला काटकेरेस पार्टी के अगुआओं को. जिनमें मुख्य थे — जहर उगाल 'जहरू', बाल बढ़ाये 'बहरू', झब्बा झब्बा 'झबरू'. इन सभी कुत्तों को हांकती थी एक बाबाजी की लाठी. वो बाबा को कम उनकी लाठी को ज़्यादा पसंद करते थे क्योंकि उनके मरने के बाद वो लाठी उन सभी काट के रेसियों के लिए 'गीला' मारने के काम जो आने वाली थी. 

फिरंगी कुत्तों के जाते ही भारतीय कुत्ता समाज में मौजूद कटखनी लीग और काट के रेस पार्टी ने अपने-अपने अगुआओं को इस पूरे इलाके का सरदार बनाना चाहा. इसलिए काट के रेसियों और कटखनी लीग ने कुत्ते भाइयों की अंदरूनी तौर पर जात और मजहबी मानसिकता का फायदा उठाते हुए कुत्तीय प्रजा को अपने-अपने समर्थन में करना शुरू कर दिया. बाहरी तौर पर उन्होंने सदा जात-पात और मज़हब को मुँह-भौंह सिकोड़ते हुए नकारा, नफरत की. 

आजादी के लिए केवल जांबाज कुत्तों की कोशिशें ही काफी नहीं रही थीं. उसके लिए जहरू जी ने अंदरूनी कोशिशें ज़ारी रखीं हुई थीं. जैसे फिरंगी वायसराय डॉग की बीबी मिसेज़ डॉगी को अपने पूरे विश्वास में ले लिया. ऐसे में डॉग साहब को अपने सुखद गृहस्थ जीवन में ख़तरा लगा तो उन्होंने वापस अपने इलाके में लौटना ही ठीक समझा. वैसे भी अब सब लुट चुका था. ऐसे में वो किस मुँह से रुकते. वो पराये इलाके में घुसपैठिया बनकर नहीं रहना चाहते थे. वो नहीं चाहते थे कि पूरी पाने के चक्कर में उनकी पानी आधी भी चली जाए. ये 'आधी' उनकी अपनी जीवनसंगिनी थी जो अब पराये प्रेम के व्यापार में लिप्त हो चुकी थी. 

इक तरफे हमले तो वो झेल रहे थे और काफी समय से झेलते भी आए थे जिसके लिए उनके पास एक 'हड्डी मंत्र' था — हड्डी डालो, राज करो. लेकिन इस अंदरूनी हमले की उम्मीद उन्हें नहीं थी. इस हमले को वायसराय साहब झेल ना पाय. ये पूरा इलाका छोड़ने के सिवाय कोई चारा न रहा था. इस तरह कुत्तों का भारतीय इलाका आज़ाद हुआ था. 

ऐसे में बाबाजी की लाठी जिसे सभी पाना चाहते थे. कटखनी लीग ने माँगी लेकिन काट के रेसियों ने उस पर अपना हक़ जताया. दोनों की लड़ायी का फायदा एक तीसरे 'GOD ' नामी उलटे कुत्ते ने उठाना चाहा. अँधेरे में उनकी लाठी छीनकर भागने की कोशिश की लेकिन लाठी की जगह उनकी टांग मुँह में आ गयी और वे नहीं रहे. 

आखिरकार लाठी जहरू के पास ही आ गयी. लेकिन कटखने कुत्तों ने आज़ाद हुए पूरे इलाके में से एक बड़े हिस्से को अपनी गिरफ्त में ले लिया और उसे नया नाम दिया 'फाकिस्तान' इधर जहरू भारतीय इलाके का अगुआ बना उधर फाकिस्तान इलाके का सरदार जिद्दा बना. जहरू के बाक़ी साथी कुत्ते अपने-अपने हुनरों से उसे मदद देने में लग गए. इस तरह जहरू की सरदारी चल निकली. 

अब जहरू को अपने इलाके में फैली छुआछूत, जातपात समाप्त करनी थी और इसके लिए जहरू ने कुत्तम मीनार के सामने ही बाबाजी की लाठी गाड़ दी और उसे लाठ नाम दिया और पूरे भारतीय इलाके के सभी कुत्तों से अपील की — 'जात पे ना पात पे, गीला मारो लाठ पे'.  इस लाठ पर किसी भी जात का कुत्ता गीला पार सकता है क्योंकि लाठ चिकनी है. इस कारण गीले [वोट] का लाभ सीधा ज़मीन [आम जन] को मिलेगा. एक कतरा भी बेकार नहीं होगा. दूसरी बात सभी कुत्तों के 'गीला मार' की एक बराबर कीमत है इसलिए आज से कोई कुत्ता कम या ज़्यादा नहीं. सब बराबर होंगे. कोई भी कुत्ता जातपात जैसी बुराइयों में ना बंधे और ना ही धार्मिक पागलपन को राजनीति में लाये, और ना ही धर्म की फालतू हरकतों से कोई इलाके के विकास मामलों में दखलंदाजी करे. 

एक बात और, मुझे पिल्लै बहुत पसंद हैं, इसलिए उन्हें इन बुराइयों में बिलकुल ना घसीटना. मैं एक बिना जाति वाला देश बनाना चाहता हूँ. इसके लिए मुझे काफी समय लग सकता है. इसलिए हर बार चुनाव में मुझे ही सरदार चुनें. अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह भारतीय इलाका पूरे का पूरा गर्त में जा पहुँचेगा. इस समय इलाके में ऐसा कोई कुत्ता नहीं जो इलाके की बागडोर संभालने योग्य हो. मेरी अंदरूनी नीतियों ने इलाका आज़ाद कराया था और आगे भी मेरा पिल्लाप्रेम, जो मेरी अंदरूनी नीति का ही एक हिस्सा है, ही मुझे इलाके के विकास में कामयाबी दिलाएगा. 

ये कहकर उन्होंने अपने परिवार को लगाने के लिए एक अमर नारा दिया — जय हिंद. 



गुरुवार, 20 मई 2010

पौधकुमार के चाचा "शमी" को जानो

जब तक पौधकुमार अपना बढ़ा होगा, जब तक पटरीरानी  और रेलबाला किसी नयी दिशा में किसी नए अफ़साने को जन्म नहीं दे  लेंती तब तक हम वृक्ष-बिरादरी के कुछ प्रतिभाशाली पेड़ों से परिचय कर लेते हैं :
हम आज केवल शमी को ही जान पायेंगे.

शमी को जानो
— "शमी" वृक्ष ही यज्ञ की समिधाओं के लिए उपयुक्त वृक्ष है. यह बबूल और कीकर जाति का ही वृक्ष है. शमी वृक्ष की फलियों को खाकर कई दिनों तक ऋषि-मुनि भूखे रह सकते थे. इसे खाने से उपवास क्षमता बढ़ती है. शरीर पर कोई अधिक प्रभाव भी नहीं पड़ता. चर्बी घट जाति है.

  • यह राजस्थान का राज्य वृक्ष है; स्थानीय भाषा में इसे खेजडी कहते है तथा इसका वानष्पतिक नाम प्रोसोपिस सिनरेरिया है. — डॉ. हितेंद्र, वेब दुनिया से

  • शमी शनि ग्रह का पेड़ है. राजस्थान में सबसे अधिक होता है . छोटे तथा मोटे काँटों वाला भारी पेड़ होता है. कृष्ण जन्मअष्टमी को इसकी पूजा की जाती है . बिस्नोई समाज ने इस पेड़ के काटे जाने पर कई लोगों ने अपनी जान दे दी थी. यह पेड़ बरसात में अपने आप पैदा होता है . इस पेड़ के फल को सांगर और साँगरी भी कहते है. — के. सी. शर्मा, वेब दुनिया से

  • कहा जाता है कि इसके लकड़ी के भीतर विशेष आग होती है जो रगड़ने पर निकलती है ... इसे शिंबा; सफेद कीकर भी कहते हैं. — कुमार शिव, वेब दुनिया से

  • शमी अर्थात छोंकर या खेजड़ के वृक्ष का बल्लभ संप्रदाय में अधिक महत्व माना गया है। इस वृक्ष का महत्व केवल इस बात में नहीं है कि इसकी जड़, तना, छड़े पत्तियां आदि सभी काम आते हैं, इस वृक्ष का महत्व केवल इस बात में भी नहीं है कि राजस्थानी किसान की अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण आधार यह वृक्ष है। खेजड़ के पेड़ का नाम ही शमी वृक्ष है जिस पर महाभारत के युद्ध के समय बभ्रुवाहन का सर टांगा था. — श्री भावेश, वेब दुनिया

  • खेजड़ी : [विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से]  वैज्ञानिक वर्गीकरण – जगत: पादप, विभाग: मैग्नोलियोप्सीडा, वर्ग: मैग्नोलियोफाइटा, गण: फैबल्स, कुल: फैबेसी, प्रजाति: प्रोसोपिस, जाति: P. सिनेरारिया, द्विपद नाम [प्रोसोपिस सिनेरारिया] .

  • खेजड़ी या शमी एक वृक्ष है जो थार के मरुस्थल एवं अन्य स्थानों में पाया जाता है। यह वहां के लोगों के लिए बहुत उपयोगी है।

  • इसके अन्य नामों में घफ़ (संयुक्त अरब अमीरात), खेजड़ी, जांट/जांटी, सांगरी (राजस्थान), जंड (पंजाबी), कांडी (सिंध), वण्णि (तमिल), शमी, सुमरी (गुजराती) आते हैं।

  • इसका व्यापारिक नाम कांडी है। यह वृक्ष विभिन्न देशों में पाया जाता है जहाँ इसके अलग अलग नाम हैं। अंग्रेजी में यह प्रोसोपिस सिनेरेरिया नाम से जाना जाता है।

  • खेजड़ी का वृक्ष जेठ के महीने में भी हरा रहता है। ऐसी गर्मी में जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह पेड़ छाया देता है।

  • जब खाने को कुछ नहीं होता है तब यह चारा देता है, जो लूंग कहलाता है। इसका फूल मींझर कहलाता है। इसका फल सांगरी कहलाता है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है। यह फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है।

  • इसकी लकडी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है।

  • इसकी जड़ से हल बनता है।

  • अकाल के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है।

  • सन १८९९ में दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे।

  • इस पेड़ के नीचे अनाज की पैदावार ज्यादा होती है।
साहित्यिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व
खेजड़ी का वृक्ष राजस्थानी भाषा में कन्हैयालाल सेठिया की कविता 'मींझर' बहुत प्रसिद्द है है। यह थार के रेगिस्तान में पाए जाने वाले वृक्ष खेजड़ी के सम्बन्ध में है। इस कविता में खेजड़ी की उपयोगिता और महत्व का सुन्दर चित्रण किया गया है।
[१] दशहरे के दिन शमी के वृक्ष की पूजा करने की परंपरा भी है
[२] रावण दहन के बाद घर लौटते समय शमी के पत्ते लूट कर लाने की प्रथा है जो स्वर्ण का प्रतीक मानी जाती है। इसके अनेक औषधीय गुण भी है।
[३] पांडवों द्वारा अज्ञातवास के अंतिम वर्ष में गांडीव धनुष इसी पेड़ में छुपाए जाने के उल्लेख मिलते हैं।
[४] इसी प्रकार लंका विजय से पूर्व भगवान राम द्वारा शमी के वृक्ष की पूजा का उल्लेख मिलता है।
[5] शमी या खेजड़ी के वृक्ष की लकड़ी यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है।
[६] वसन्त ऋतु में समिधा के लिए शमी की लकड़ी का प्रावधान किया गया है।
[७] इसी प्रकार वारों में शनिवार को शमी की समिधा का विशेष महत्त्व है।

शनिवार, 15 मई 2010

पौधकुमार का हैप्पी बरडे कब मनेगा?

एक बार रात में पौधकुमार की शोरगुल से नींद खुल गयी तो उन्होंने देखा कि सामने वाले फ्लैट्स नामी पेड़ की एक डाल पर चमाचम लाइटें जल रहीं थीं और बहुत सारे बच्चे वहाँ गाने-बजाने पर उछल-कूद कर रहे थे.
पौधकुमार ने बराबर में खड़े शमी वृक्ष से पूछा — शमी चाचा, ये सामने वाले पेड़ के बच्चे क्यों नाच-गा रहे हैं?
शमी चाचा — [ऊँघते हुए] पौधू बोलो मत, चुपचाप सो जाओ, सुबह जल्दी उठना है, जल्दी नहीं उठे तो कार्बन खुराकी न मिल सकेगी.
पौधकुमार — चाचा, आप जागो तो सही, मुझे उत्तर जाने बिना नींद न आ सकेगी. बताओ तो आज इन फ्लैट्स-फलों को क्या हुआ है?
शमी — [आँखें खोलकर देखता है, फिर बोलता है] बेटा, आज किसी बच्चे का हैप्पी बरडे है इसलिए ये सभी इकट्ठा होकर हैप्पी बरडे मना रहे हैं और नाच-गा रहे हैं.
पौधू — चाचा, हैप्पी बरडे क्या होता है?
शमी — बेटा, आदमी लोग अपने बच्चों के जन्म वाली महीना तारीख को हर साल इसी तरह मनाते हैं. केंडिल जलाकर बुझाते हैं, केक काटते हैं, बाँटते हैं और खाते हैं. बरडे बॉय को बाकी सभी बच्चे गिफ्ट देते हैं.
पौधू — बस, इस तरह हो जाता हैं हैप्पी बरडे?
शमी — हाँ बेटा, बस इसी तरह होता है, अब सो जाओ.
पौधू — चाचा, तो क्या मेरा भी हैप्पी बरडे मनेगा? मेरा कब जन्म हुआ था?
शमी — बेटा, हम लोगों का जन्म तो मौसमी होता है. अधिकांश का बरसात के मौसम में ही जन्म होता है और कुछ का ही अन्य मौसम में होता है. तुम्हारे जन्म की तारीख तो याद नहीं है बेटा. लेकिन इतना जरूर याद है जब तुम अंकुरित हुए थे तब उस दिन इन अपार्टमेंट्स के बच्चे अपने हाथों में रंग-बिरंगी फूल वाली डोरियाँ बाँधे घूम रहे थे. बड़ों के हाथों में भी उस दिन डोरियाँ बँधी थीं. उस दिन शाम को हलकी-हलकी फुहार भी पड़ी थी.
पौधकुमार सुनकर बहुत खुश हुआ. शमी चाचा से पूछा — और क्या हुआ था चाचा जी?
शमी — बेटा सो जाओ, रात बढ़ रही है. रात में अच्छे बच्चे शोर नहीं करते. चुपचाप सोते हैं.
पौधू — हम तो धीरे-धीरे बोल रहे हैं. इससे किसी को क्या परेशानी होगी?
शमी — बेटा रात में खुसुर-फुसुर भी करते हैं तो भी शोर होता है. छोटे-छोटे कीड़ों की आवाजें भी तेज़ सुनाई देती हैं. हमारे समाज में कई बूढ़े वृक्ष भी हैं और कई रोगग्रस्त वृक्ष भी हैं. उनका हमें ख्याल रखना चाहिए. जिन्हें  बड़ी  मुश्किल से नींद आती है और ज़रा सी आवाज़ से बेचारों की नींद उचट जाती है. रात में सोने वाले पेड़-पौधे दिनभर स्फूर्ति से भरे रहते हैं और भपूर परोपकार करते हैं.
पौधू — चाचा, हम लोग काम करने इधर उधर क्यों नहीं आते-जाते?
शमी — बेटा, तुम्हारे सारे सवालों का उत्तर मैं सुबह दूँगा. अभी तुम सो जाओ. नींद नहीं आ रही तो भगवान् कल्प को याद करो, और आँखें बंद कर लो.
पौधकुमार ने शमी चाचा की बात मानी और चुपचाप 'कल्पवृक्ष' के जाप में जुट गया. कुछ देर बाद उसको नींद आ गयी. लेकिन 'बरडे-हुडदंग' मचाते बच्चों से बीच-बीच में नींद उचट जाती थी. पर पौधू प्यारा चुपचाप उन्हें देखता और वृक्ष जीवन के तरह-तरह के सवालों में घिर गया —
'मैं कहाँ से आया?'
'मैं बड़ा होकर क्या बनूँगा?'
'क्या पूरे जीवन मैं एक ही जगह खड़ा रहूँगा जैसे सब खड़े रहते हैं?'
लेकिन बोगन बेलिया तो बोल रही थी "जो एक बार गमले में जगह पा जाए उसका जीवन सँवर जाता है. उसको खाद पानी के लिए ज़मीन के अन्दर भटकना नहीं पड़ता. पेड़-पौधों की भीड़-भाड़ में खाने-पीने की छीना-झपटी नहीं करनी पड़ती. गमले की जिन्दगी एकदम फ्लैट्स वाली ज़िन्दगी की तरह है. जितनी जगह मिले, उतनी पूरी की पूरी अपनी. बस अपनी जड़ें समेटकर रहो. ज़्यादा फैलकर करना भी क्या है? कौन-सा परिवार बढ़ाना है? जब तक परिवार बढाने लायक होंगे अपने बच्चों के लिए नए गमले आ ही जायेंगे. इसलिए गमला-जीवन बड़ा ही सुखद जीवन है. ना खाना-खुराकी की चिंता, ना वंश-वृद्धि का टेंशन. बच्चे ना हों तो खाना-खुराकी में हिस्सेदारी बनाने की भी ज़रुरत नहीं."
जो बोगन बेलिया ने कहा क्या वह सही जीवन-पद्धति है? गुलाब तो कहता है उसकी वंश-वृद्धि तो बिना बीज के भी हो जाती है. बस उसकी शाखा की कलम बनाकर गमलों में रौंप दो फिर कुछ दिनों में ही उस जैसा ही एक भाई और उठ खड़ा होता है. तुलसी अम्मा कितनी अच्छी है जो मुझे हमेशा प्यार से देखती है. कल तुलसी अम्मा कितने दुखी मन से बोल रही थी "पहले उनके पूर्वजों का हर घर के आँगन में घेरा था. पूजा थी. सम्मान था. पर अब कैक्टस भाइयों को गमलों में ज़्यादा जगह मिल रही है. घरों की व ओफीसिज़ की शोभा उनसे होने लगी है. उनमें कौन-सी अच्छी बात है जो मुझमें नहीं. क्या बिना पानी के कई दिनों तक जीवित रहना ही उसकी अच्छाई है. मुझे एक-दो दिन पानी ना मिले मैं तो मुरझा जाऊँ."
सोचते सोचते अपना नीमन, अपना पौधू, अपना पौधकुमार कब सो गया. उसे पता ना चला.

अब मैं सोच रहा हूँ. क्या पेड़-पौधों को नींद में सपने आते होंगे? अगर मुझे याद रहा तो कभी चुपचाप पौधकुमार से ही पूछूँगा कि तुमने कल रात क्या सपना देखा?

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

खेलगाँव के पिछवाड़े पौधकुमार का जन्म

पिछले साल की ही बात है, दिल्ली के अक्षरधाम के पिछवाड़े जो खेलगाँव बसने जा रहा है वहाँ पर, उसी भूमि पर एक पौधे का पुनर्जन्म हुआ. इस जन्म में उसे नीम की योनी प्राप्त हुई. आसपास के वृक्षों ने उसे खूब प्यार किया. उसके पालन-पोषण का दायित्व और शिक्षा का उचित प्रबंध किया. वृक्ष-समुदाय में लार्ड मेकाले की शिक्षा-नीति के अनुसार शिक्षा नहीं दी जाती, वहाँ परोपकारिक-शिक्षा नीति के अनुसार सभी वनस्पतियाँ बिना ऊँच-नीच, बिना जाति-पाति, बिना भेद-भाव के शिक्षा गृहण करती हैं. पौधकुमार बचपन से काफी होनहार थे, उनके चिकने पत्ते इसका प्रमाण थे. कहते भी हैं कि "होनहार बिरवान के होत चीकने पात". शीशम तरु ने पौधकुमार को अपने आस-पास रहने वाले पेड़-पौधों के नाम और संबोधनों की जानकारी दी.

जैसे "अ-ल...ल..लला...ला.! इधर देखो, ये तुम्हारे जामुन अंकल हैं..., और ये तुम्हारी इमली चाची... और मैं तुम्हारा शीशम ता..ऊ.    ताऊ जी को ताऊ बोलो.. देखो हँस दिया."



उसकी माँ यमुना किनारे किसी तरह अपने कुनबे को बचाए खड़ी थी. वहाँ आने-जाने वाले हर थके-मांदे जीव-जंतुओं को अपनी छाया, आश्रय देकर उनकी सेवा में दिन-रात लगी रहती और अपने वृक्ष-जीवन को सफल कर रही थी. बढ़ती आयु में जहाँ लोग अपना समय प्रभु-भक्ति के नाम पर व्यर्थ करते हैं वहीँ वह अपना समय परोपकार में लगाए थी, जिसे वह ईश्वर आराधना से कमतर नहीं आँकती थी.



पौधकुमार के समीप उनके गुरुजन सदा उसकी बाल-जिज्ञासाओं को अपने उत्तरों से शांत करते रहते. बालकों के सवालों के उत्तर यदि सुलझे हुए दिए जाएँ तो यही उत्तर उनके संस्कारों की भूमि तैयार करते हैं. संस्कार अलग दी जाने वाली कोई दवाई या बूटी नहीं है और ना ही कोई शिक्षा है जिसे किसी आयु विशेष का इंतज़ार रहता है. सभी आस-पास के यार-दोस्त उस पौधकुमार को "नीमन" नाम से पुकारते हैं. हालाँकि अब वह किशोर होकर अपने हाथ-पाँव फैलाने की तैयारी में लगा है. जिसके बारे में आगे किसी कहानी में बयान किया जाएगा. अभी तो उसके पहले वर्ष की जीवन की झाँकी देख ली जाए.



एक बार की बात है, जब उसकी गर्दन कुछ ऊँचा उठनी शुरू हुई तो उसे दिखने वाली हर वस्तु आकर्षित करने लगी और उसके बारे में उसने अपने समीपस्थ पालकों [गुरु वृक्षों] के सामने सवालों की झड़ी लगानी शुरू कर दी.

नीमन पूछता — जामुन अंकल! वो क्या है?
जामुन — वो बेटा! सफेदे का पेड़ है.
नीमन — अंकल! वो क्या है?
जामुन — वो बेटा! कीकर का पेड़ है.
नीमन — अंकल! वो क्या है?
जामुन — वो बेटा! नीम का पेड़ है? तुम्हारे वे दूर के दादाजी हैं. अब काफी बूढ़े हो चले हैं.
नीमन — मेरे दूर के दादा जी, मुझसे इतनी दूर क्यों खड़े हैं?
जामुन — बेटा! हमारे लिए दूर-पास कोई मायने नहीं रखता. हम पास रहें या दूर, एक सा ही व्यवहार करते हैं. देखो वे तुम्हारी तरफ प्यार से देख रहे हैं. उन्हें प्रणाम करो. 'कहो दादाजी नमस्ते!'
नीमन — [जोर से] दादाजी... नमस्ते!
जामुन — तुम धीरे से भी बोलोगे तो वे तब भी तुम्हारी आवाज सुन लेंगे.
नीमन — [एक बिजली के खम्बे की तरफ इशारा करके] अच्छा अंकल! वो कौन-सा पेड़ है?
जामुन — बेटा, वो, सड़क के पार वाला.... वो पेड़ नहीं हैं, वो तो आदमी द्वारा खड़े किये पोल भाईसाहब हैं. जो रात को रोशनी करने का काम करते हैं. वहाँ कभी.... आपके परिवार के कई मौसियाँ, मामा आदि हुआ करते थे. अब वे नहीं रहे.
नीमन — मेरे मामा, मौसी? अब वे कहाँ गए?
जामुन — बेटा, वे अपने पुनर्जन्म के इन्तजार में हैं. कुछ महीनों पहले ही तो उनकी सामुहिक ह्त्या कर दी गयी. बेटा तुम नहीं समझोगे. अभी तुम छोटे हो. इस बारे में कभी और बताउंगा.

नीमन —  अंकल, वो लंबा पेड़ कौन-सा है?
जामुन — बेटा, वो पेड़ नहीं है, वो आपार्टमेंट है. [जामुन की आँखों में आँसू भर आते हैं] वहीँ तो तुम्हारे ...[फफक-फफक कर रोने लगता है] ... वहीँ तो तुम्हारे दादाजी का बगीचा हुआ करता था. "वैद्यराज नीम की वाटिका" नाम था, उसे उजाड़ कर ही तो खेलगाँव बसाया जा रहा है. जहाँ आदमियों के क्वालिफाइड बच्चे रहेंगे. बेटा मत पूछो, फिर कभी बताउंगा तुम्हारे दादाजी के बगीचे के बारे में.
नीमन — अच्छा अंकल आप रोना नहीं. बस उस मोटे पेड़ के बारे में और बता दो? क्या वो पेड़ नहीं, अपार्टमेन्ट है या फिर कुछ और है?
जामुन — बेटा, तुम बहुत अच्छे हो, कम-से-कम मेरा रोना तुम्हें दिखाई देता है. बेटा, वो मोटा-मोटा पेड़ नहीं और ना ही कोई अपार्टमेन्ट है. वो तो आदमियों के धर्म और आस्था का केंद्र अक्षरधाम मंदिर है. जहाँ लोग अपने पापों का प्रायश्चित करते हैं और परोपकार करने के झूठे संकल्प करते हैं. ये सब एक-दूसरे की देखा-देखी, सामाजिक प्रदर्शन करते हैं कि वो आस्तिक हैं, ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करते हैं. ये आदमियों की जीवन शैली है हमारी नहीं. हमारे जीवन का उद्देश्य तो सभी का परोपकार है. चाहे वो हमारी वृक्ष जाति हो अथवा मनुष्य जाति हो अथवा अन्य कोई भी प्राणियों का वर्ग हो हम बिना भेद-भाव के छाया, फल, आश्रय, औषधि, आदि देते हैं. अब काफी समय हो गया बेटा तुम जमीन से कुछ पानी-खुराकी खींचो और अपने तने में पहुँचाओ. तुम्हारा हलक सूख रहा है.
नीमन की आँखे बंद होने लगती हैं. शायद उसे नींद आ रही है. पहले थोड़ा सो ले फिर उसके सवालों की बौछार फिर शुरू हो जायेगी. तब तक हम विश्राम लेते हैं. विदा.


[शेष अगले अंक में]
इस कहानी को लिखते हुए मेरे एक स्थान पर स्वयं आँसू आ गए. मैं इस रोने को उन वृक्षों को श्रद्धांजलि रूप में अर्पित करता हूँ जो अब विकास प्रक्रिया की भेंट चढ़ चुके हैं. यही है मेरा बलि-वैश्य यज्ञ.

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

ज्योतिषी पंडित पीपल प्रसाद जी का रत्नज्ञान

एक गाँव में चौपाल के पास एक बहुत विशालकाय वृक्ष खडा था. नाम था पंडित पीपल प्रसाद जो कभी पुराने पेड़ों के बीच पंडित लाल धागे वाले के नाम से मशहूर हुआ करते थे. नयी पीढ़ी नयी सोच के लोगों में आज अपनी अहमियत कम होता देख पंडित जी ने फिर से उसी ५० साल पुरानी प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिए काफी चिंतन किया और मन-ही-मन एक योजना बना डाली.

पंडित जी ने अपनी छाँह तले एक साइकिल-दुकान को आश्रय दिया हुआ था. जो पेड़ अपनी जवानी में लोगों के अधूरे अरमानों को पूरा करने वास्ते कभी लाल धागों से लिपटा रहता था आज समय के फेर ने उसे अपनी शाखाओं में स्कूटर-साइकिल के टायर-ट्यूब पहनने को मजबूर कर दिया था. लेकिन पंडित जी हर स्थिति को अपने अनुकूल बनाने में सिद्धहस्त थे. उन्होंने इसे रत्नों की महिमा के गुणगान में प्रयोग किया.

"पहले मैं नर्वस रहता था. मन में सदा घबराहट बनी रहती थी. भाग्य के कपाट बंद थे. कोई पक्षी मुझ पर बसेरा करने को राजी ना था. तने पर कुत्ते मूतते थे, डालों पर गिद्ध बैठते थे. उल्लू कोटर बनाने को उतावले दीखते थे. लेकिन अब... अब बिलकुल ऐसा नहीं है."

"जिसके तने में जितनी ज़्यादा मोची कीलें ठुकीं हों वह उतना ही आत्म-विश्वास से भरा रहता है. साइन बोर्ड वाले वृक्षों का हाजमा सही रहता है और टायर-ट्यूब पहनने वाले वृक्ष तो सदा संत-स्वभावी होते हैं, उनपर कभी दुष्ट शनि [लकडहारे] की वक्र दृष्टि नहीं पड़ती."

"और यदि किसी  पेड़ को रात में 'आदम बच्चों को झूला झुलाने के' सपने आते हों तो वे अपनी सबसे निचली शाखा में दो मोटर-साइकिल के टायर पहनें. इससे सपने आना बंद हो जायेंगे. आदम बच्चे पास आकर खड़े होने लगेंगे."

"और यदि कोई पेड़ अपने छरहरे होने के बावजूद किसी लतिका को सहारा देने की इच्छा पूरी नहीं कर पा रहा है तो वह दिन में दो बारी अपनी शाखाओं पर जंगली कौवों को बैठा कर नीचे निकलते श्वेतवस्त्रधारी राहगीरों पर बीट से अर्घ्य दिलवायें. मनोकामना शीघ्र पूरी होगी."

पंडित जी आसपास बसे घरों के छज्जों से झाँक रहे गमल-गुल्मों को भी प्यार से देखते थे और उनको उनकी "थोड़ी मिट्टी, थोड़ा पानी" वाली किस्मत पर धीरज रखने को कहते. उन्हें कहते "तुम यदि तुलसी गमले पर सुबह-शाम जलने वाले दीपक का कार्बन-प्रसाद ग्रहण कर पाओ तो वह तुम्हारे उद्धार में सहायक होगा. "

इस तरह पंडित पीपल प्रसाद धीरे-धीरे वृक्ष-समाज में अपनी जगह बनाने लगे.



शेष अगले अंक में...

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

पानी की गाड़ी

एक बार देश में बिजली का उत्पादन कम हुआ. सरकार ने पूरे देश में बिजली की भारी कटौती की. देश के प्रमुख बाँध भाखड़ानागल पर सरकार ने ध्यान नहीं दिया. बेचारे का जगह-जगह से पलस्तर उखड़ने लगा. दरारें पड़ने लगीं. क्योंकि वह अधिक बिजली पैदा करके नहीं दे रहा था इसलिए सरकार ने उसकी उपेक्षा करना शुरू कर दिया.

बाँध ने सोचा अगर उसमें पानी लबालब भर जाए तो वह भी पहले की तरह बिजली ज्यादा पैदा कर पायेगा. सरकार भी उस पर ध्यान देगी. इसलिए उसने अपनी नदी से कहा कि मुझे अधिक पानी चाहिए. तुम मुझे बहुत कम पानी दे रही हो. अब मैं कम बिजली बना पाता हूँ. मुझे सब गुस्से से देखने लगे हैं कृपयाकर मुझे जल्दी से जल्दी अधिक पानी दो.

नदी ने कहा — मैं विवश हूँ. मैं चाह कर भी तुम्हें अधिक पानी नहीं दे सकती. क्योंकि इस बार बारिश नहीं हुयी. और ना ही मुझे हिमालयराज ने अपने राजकोष से कुछ जलराशि दी है. मैं तुम्हारी बात लेकर हिमालयराज के पास जाऊँगी और उनसे विनती करूँगी कि वे हमारी खुशहाली और समृद्धी हमें लौटा दें.

नदी ने जाकर पर्वतराज हिमालय से कहा — राजन! पानी की कमी से मैं बहुत पतली हो गयी हूँ.  और बाँध भी खाली पेट दिन गुजार रहा है. आप कृपाकर हमारी खुशहाली का समाधान करें.

हिमालयराज ने कहा — क्या करूँ देवी! इस विकट स्थिति [समस्या] से मैं बहुत दुखी हूँ. बार-बार अपने वृक्ष सेवकों से सन्देश भेजता हूँ लेकिन भगवान् जलनिधि तक नहीं पहुँच पाता. बीच में मनुष्यकृत फैले प्रदूषण से रुक जाता है. मैं फिर से एक बार तुम्हारे सामने ही प्रयास करता हूँ, देखो!

हिमालय ने देवदार और चीड नामक अपने सेवकों से सन्देश प्रेषण के लिए फिर प्रयास करने को कहा. देवदार और चीड़ के वृक्षों ने अपनी शाखाओं से वायु में तरंगों को छोड़ा जिसमें पानी की किल्लत की बात कही गई और जलनिधि से यथाशीघ्र जल की गाड़ियाँ भेजने को कहा गया.

वायु ने तरह-तरह के प्रदूषणों को लाँघते हुए जैसे-तैसे तरंग सन्देश जलनिधि के पास पहुँचाया. जलनिधि ने तुरंत वारिवाह नामक मेघ को पानी की गाड़ी लेकर रवाना किया.

वारिवाह ने अपनी पानी की गाड़ी को बहुत तेज़ दौडाया.  रास्ता लंबा था इसलिए कभी-कभी वह अपनी चाल धीमी भी कर लेता. चलते-चलते एक स्थान पर उसने प्यासा जंगल देखा, जो प्यास से अधमरा हो गया था. वारिवाह ने जंगल की आर्त पुकार पर उसे अपनी गाड़ी से काफी सारा पानी पिलाया. जंगल खुश हो गया. जंगल ने पानी की गाड़ी के मालिक वारिवाह को धन्यवाद दिया.

वारिवाह अपनी पानी की गाड़ी को लेकर आगे बढ़ गया. रास्ते में सूखे से ग्रस्त धरती को देखकर उसने थोड़ा पानी वहाँ भी बरसा दिया. धरती में जान आ गयी. उसने वारिवाह को प्रेम से देखा और अपनी सुगंध से सबको खुश कर दिया.

पानी की गाड़ी आगे बढ़ी तो कुछ किसानों ने उसकी तरफ आशा से निहारा. उनकी फसल को पानी चाहिए था इसलिए उन्होंने हाथ जोड़कर वारिवाह से प्रार्थना की कि थोड़ा पानी उनकी फसलों पर बरसा दें तो छोटे-छोटे पौधों की जान बच जायेगी.

वारिवाह ने देखा कि पानी कि गाड़ी आधी खाली हो गयी है. उसने फिर भी बिना हिचक सभी किसानों की फसलों पर पानी बरसा दिया. किसान खुशी से नाच उठे. फसलों के छोटे-छोटे पौधे ख़ुशी से झूम उठे.

वारिवाह मंजिल पर पहुँचने ही वाले थे तभी रास्ते में एक तालाब दिखा जिसके जीव-जंतु बिना पानी के मर रहे थे. पानी में रहने वाली मछलियाँ, मेंढ़क और तालाब के किनारे बसने वाले पशु-पक्षी सब-के-सब दम तोड़ रहे थे. वारिवाह ने अपनी गाड़ी का सारा पानी उस तालाब में उड़ेल दिया. तालाब पानी से भरते ही अधमरे जीवों में फिर से जान आ गयी. सभी जीव-जंतुओं ने किलकारियाँ भरीं और सभी ने मुँह उठाकर वारिवाह को प्रणाम किया.

लेकिन वारिवाह जब पर्वतराज हिमालय के पास पहुँचे तब तक पूरे खाली हो चुके थे. राजन ने कहा — तुम खाली चले आये. ऐसा क्यों? वारिवाह ने रास्ते की पूरी घटना पर्वतराज से कही. तब पर्वतराज बोले — कोई बात नहीं. यह तो अच्छी बात है कि जो पहला जरूरतमंद मिले मदद पहले उसकी ही की जानी चाहिए, बाद में बाकियों की. तुम्हारी दूसरी गाड़ियाँ कब तक आ जायेंगी? हम प्रतीक्षा करेंगे.

[सीख — पाठकगण इस कहानी से मिली सीख को मेरे भिक्षा-पात्र में कृपया भेजें. ]

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

जब जागो तभी सवेरा

जब तक प्रकृति की अन्य कहानियाँ जन्म लें तब तक मनुष्य समाज की सच्ची घटनाओं पर आधारित कहानियाँ सुनें —

एक बड़े संत की एक बड़ी भक्तन थीं — बड़ी धार्मिक बड़ी कर्मकांडी. एक बड़े परिवार के मुखिया की मुखनी थीं. नाम था सूर्यमुखी. संत ने गुरुमंत्र देकर पूरे परिवार को दीक्षित किया था. सभी के गले में लटकते लॉकेटों से प्रतीत होता कि यह भी शरीर का ही अवयव है. नवजात शिशु के गले में भी जब वही लौकेट देखा तो लगा कर्ण के कवच-कुंडल की भाँति यह बालक भी अपने साथ लौकेट लेकर पैदा हुआ है.
प्रातः सूर्य के एक बाँस ऊपर आ जाने के बाद से ही दिनचर्या का प्रारम्भ होता — लगभग सात-आठ बजे से.

घूमने का शौक उनके परिवार को एक दिन भारत के पूर्वी छोर पर ले गया. सभी प्राकृतिक छटा का भरपूर आनंद लेते हुए गए. अगली प्रातः को जब सूर्यमुखी की नींद खुली तो सूर्य पूरा निकल आया था लेकिन घड़ी अब भी चार बजा रही थी. सभी बच्चों की नींद खुलने लगी थी. विधाता की लीला जान वह उन्हें किसी चमत्कार से कम ना लगा. सो सभी बच्चों को फिर से सो जाने का आदेश किया कि अभी तो सुबह के सात बजने में काफी देर है.

उन्हें शायद ज्ञात नहीं था कि जैसे-जैसे पृथ्वी के पूर्व में जायेंगे तो घड़ी समय से आगे होती जायेगी अथवा सूर्य का निकलना क्रमतर पहले होता जाएगा.

अतः "जब जागो तभी सवेरा"

[शिक्षा : देश-काल-वातावरण के अनुकूल अपनी क्रियाओं में फेर-बदल करना चाहिए. ]

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

प्राकृतिक जीवन सहज है...

हिमालय पर एक संत रहते थे. प्रकृति से प्रेम था. वर्षों से विभिन्न विषयों पर शोध जारी था. नदी-नाले, पेड़-पौधे, पहाड़-झरने और जलचर-नभचर-थलचर के सभी जीवों के व्यवहारों का गूढता से निरीक्षण करना उनका रुचि का विषय था. जीवों के व्यवहारों पर चिंतन करते हुए उनके अंतःकरण में परमात्मा के प्रति आस्था बढ़ती गयी.
सभी प्राणी बिना अवरोध जी रहे हैं. सभी को सब प्रकार का सुख है. जिसके चरण नहीं वह बिन चरणों के ही तीव्रता से रेंग लेता है. जिसके चरणों में गति नहीं वह भी पंखों से आकाश नापकर इच्छित स्थान पर आता-जाता है. दाँत, नाखून, मुखाकृति, पाचन-तंत्र आदि शरीरावयव सभी प्राणियों को उनकी आवश्यकतानुसार ही मिले हैं.
ढूँढने से भी नहीं मिला उन्हें कोई अभावग्रस्त. उन्होंने मनुष्यों में भी ऐसा ही पाया लेकिन रो वही रहे थे, दुखी वही थे जिनकी इच्छाएँ अनावश्यक रूप से विकास किये थीं.
निष्कर्षतः प्राकृतिक जीवन सहज है यदि इच्छाएँ सीमित हैं.

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

बरगद शाखी

सड़क किनारे लगे बिजली के पोल ने निराश खड़े बिना नाम वाले पेड़ को कहा — "भैया, उदास क्यों हो! तुम भी बरगद की तरह आदम समाज में सम्मान पा सकते हो. इसके लिए तुम्हें एक रहस्य की बात बताता हूँ. समाज में ऐसे कई वृक्ष हैं जो महान होने और वरिष्ठता का ढ़ोंग करते हैं. तुम भी वैसा ही क्यों नहीं करते? तुम एक शाखा सड़क की ओर ऎसी निकालो जो सड़क के दूसरे छोर पर खड़े पोल के सम्यक और समान ऊँचाई पर बन पड़े. तब देखना बेनर लगाने वाले तुम्हें जल्दी ही वटवृक्षीय गरिमा प्रदान कर देंगें. भैया, ये विज्ञापन युग है. यहाँ सहजात और स्वाभाविक सौंदर्य मायने नहीं रखता. जितना लिपोगे पुतोगे, उतना ऊँचे जाओगे.

पेड़ ने कहा — भैया, वो कैसे? मैं वटवृक्ष की तरह कैसे दिख सकता हूँ? अगर दिखने भी लगूँ तो क्या आदम समाज मुझे वट मानेगा? पूजा करेगा?

पोल बोला — महीने दो महीने में देखना धडाधड बेनर लगेंगे, और हटेंगे-फटेंगे. उन सभी बैनरों की डोरियाँ तुम्हें वट बना देंगी. सड़क पर सोने वाले और प्रचार की प्रतिस्पर्धा में पड़े अपने लिए सही जगह ढूँढने वाले दोनों प्रकार के लोग इसमें सहयोग करेंगे. गरीबों को तन ढकने को कच्छा, कुर्ता, टॉयलेट के लिए पर्दा सब इसी कपड़े से मिलता है. चुनाव सर पर हैं तुम्हारी तो मोज ही मोज आने वाली है.

पेड़ ने कहा — अरे भैया, क्यों गरीब पेड़ का मज़ाक बनाते हो. आदमी बहुत समझदार प्राणी है. असली-नकली की उसे पहचान है. मेरा ये मुखोटा वह झट पहचान लेगा.

पोल बोला — आदम समाज धीरे-धीरे पेड़ों के नाम, उनकी असल पहचान को भूलता जा रहा है. उसे केवल रेपर नोलिज ही चाहिए. वह ज्ञान के नाम पर वस्तु और प्राणी आदि को कुछ विशेषताओं से ही काम चलाने लगा है. आदमी को आज केवल फल खाने से मतलब रह गया है, पेड़ गिनने से नहीं, और ना ही उसकी समस्याओं से उसको कोई लेना-देना है. तुम अपना वट बनो और सम्मान पाओ. कुछ दिनों में देखना भक्ति में अंधे हुए नयी पीढ़ी के लोग तुम्हारे चारों ओर चबूतरा बनायेंगे, मनौती का कलावा लपेटने लगेंगे. दीपक जलाएंगे, प्रसाद चिपकायेंगे, लटकती सुतलियों पर अपने अपूर्ण अरमानों की ग्रंथियाँ बांधते जायेंगे. तब तुम मुझे मत भूल जाना. क्योंकि तब तक मेरा होलिजन लाइट बल्ब फ्यूज़ होकर गिर चुका होगा. या, उसमें किसी कौवे ने घोंसला कर लिया होगा या, मरे पतंगों की भरमार से मेरा लाइटिंग कवर भर चुका होगा.
तुम शीघ्र बड़े और महान होने वाले हो, मुझे भूल मत जाना मेरे दोस्त.  आने वाले चुनाव का फायदा उठा लो. मौक़ा हाथ से गया तो जल्दी बरगद नहीं बन पाओगे. 

शेष अगले अंक में.
[मैंने अभी "तेल का कुआँ" रोका हुआ है.  जिसे मौक़ा मिलने पर बढाया जाएगा. ]

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

तेल का कुआँ

डिगबोई प्रसाद एक तेल कुआँ था. प्रसाद जी हमेशा लबालब रहते. कोई 'तेल निकाल मजदूर'  उनके पास आता, बर्तन भरभर देते. प्रसाद जी का एक पाईपलाइन से गठबंधन हो चुका था. इससे वो बहुत खुश-खुश रहते. लेकिन गठबंधन के पहले वर्ष में ही लीकेज हुआ और पाईपलाइन फट गयी. तेल सप्लाई बंद करनी पड़ी. प्रसाद जी अकस्मात् टूटे बंधन से बहुत दुखी हुए. वियोग की ज्वाला से दग्ध होकर दिन-रात आँसू बहाते रहते.


प्रसाद जी को यूँ आँसू बहाता देख 'मिटटीशरण' नामक एक पुराने गहरे कुएँ ने कहा — प्यारे डिगबोई! तुम्हें व्यर्थ में इस तरह आँसू नहीं बहाने चाहिए. तेली कुएँ की तो कीचड़ भी कीमती होती है ये तो फिर भी आँसू है. इनसे क्यों नहीं तुम एक काव्य की रचना कर डालते. दुःख के इन अन्तरंग भावों को पुंजीभूत कर एक नयी सप्लाई क्यों नहीं देते. जैसे तुम कह सकते हो — "जो सटी कूप नलिका थी/ बिलकुल अन्दर तक आयी/ किल्लत में फट जाने पर/ हो गयी बंद सप्लाई."


प्रसाद जी को जैसे दिशा मिल गयी. मन पुनः नवीन उमंग से तरंगित हो उठा. मन के तैलीय मवाद को डिगबोई ने कुछ 'तैल-काव्य' प्रस्फुटित करने के बाद अपने को शांत अनुभूत किया.


इस तेल भरे कुएँ में
अब नलिका नहीं उतरती
तरबतर तेल से तो भी
प्यासी लगती हैं धरती.


आती है रिक्त कुएँ से
क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी
टकराती झन्नाती-सी
पगली-सी देती फेरी.


भर-भरकर सारे भाण्डे
पी-पीकर प्यारी नलिका
आ-आकर चूसे जाती
दिखला यौवन की कलिका.


दो दर्पण हुए परस्पर
करते छाया-प्रतिछाया
हो गयी न जाने कितनी
उनके बिम्बों की जाया.


खैर, तैल-काव्य तो लंबा चला. बहरहाल डिगबोई प्रसाद जी काव्य रचनाकर्म से संतुष्ट नहीं हुए. मानव रुपी विधाता की इच्छा ने उनका पुनःगठबंधन एक नवीन पाइपलाइन से कर दिया. सप्लाई पुनः प्रारम्भ हो गयी. 


शेष अगले अंक में...

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

हमारी आवाज सुनले बेटा!

http://chitthajagat.in/अब आगे...

रेलबाला जब आगे बढती है तभी उसे अपनी ओर २५-२६ साल का एक युवक आता दिखाई देता है. युवक रेलबाला पर आकर लेट गया और तनाव में काफी देर तक बडबडाता रहा. चेहरे से परेशान दिखने वाला युवक आँसू बहाता रहा. तब रेलबाला ने कहा — "बेटा, इस तरह क्यों जान गँवाता है, जा घर जा. तू जीते जी माँ को मार डालेगा. तेरे कष्टों की पीड़ा ऐसे हल ना होगी. जीकर तो देख, जीवन में आयी कष्टकर परिस्थितियाँ क्या जीवनपर्यंत चलने वाली हैं, नहीं, बिलकुल नहीं, ये दुःख आना-जाना है. सुख की प्रतीक्षा तो कर. कभी तो दुःख का बादल दूर भागेगा. प्यारे! तुझसे लाखों अपेक्षाएँ होंगी. माँ की, पिता की, बहनों की, मित्रों की. संघर्ष की इस विकट परिस्थितियों में अगर तुम डूब गए तो ना जाने कितनों को मानसिक घात लगेगा. जितने लोग तुम्हारे जन्म के समय प्रसन्न हुए होंगे उससे कहीं अधिक लोग व्यथित होंगे. अब जल्दी उठ जा बेटा, ट्रेन आने का समय हो गया है. सिग्नल बदलने वाला है. बेटा, मानजा मेरी बात, माँ की गोदी में बच्चा बनकर लेट जाना. तनाव समाप्त हो जाएगा."

युवक फिर भी पडा-पडा आँसू बहाता रहा. एक शब्द हलक से नहीं निकला, कंठ रुद्ध हो गया. [विधाता ने शायद मनुष्यों को वो कान ही नहीं दिए जो प्रकृति के इन ममत्व से भरपूर दिलासों को सुन पायें.]

पटरीरानी बोलती है — बेटा, मैं जानती हूँ, तेरा दुःख, तुझे महीनों से नौकरी नहीं मिली और दोस्तों का उधार भी बढ़ गया है. एक मालिक ने तुझे वेतन नहीं दिया जिसकी तुझे आशा थी, जो तुझे माँ के पास भेजना था. अब वही आखिरी उम्मीद भी तेरी टूट गयी. बेटा, यूँ हिम्मत ना हार. हमारी आवाज सुनले बेटा!

पटरीरानी और रेलबाला समझाती रह गयीं. लेकिन तीव्र गति से आती हुयी सरकार की नयी दुरंतो ने उसे प्रकृति का स्वर सुनने की शक्ति प्रदान कर दी.  "हे राम"

"राम नाम सत्य है"

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

रिक्शा क़ानून क्यों तोड़ता है...

अब आगे...

जब वे दोनों फाटक प्रहरियों के पास से गुजरीं जहाँ उन्हें गले मिलती एक सड़क ने रोका. दोनों फाटक प्रहरी अपने दोनों ओर गाड़ियों को रोके खड़े थे. लेकिन कुछ कार वाले अपने आगे खड़े रिक्शे वालों को बुराभला कहते धमका रहे थे. रेलबाला ने एक कार में से आती आवाज सुनी —
"अबे हट बिहारी, अपना एरोप्लेन हटा."
रिक्शेवाला बोला — "साहब आगे फाटक बंद है. थोड़ा धीरज रखिये."
कार से आवाज आयी — "सान्नू धीरज दा पाठ सिखाएगा. तू शिक्षामंत्री है. हट जा (अपशब्द!) नहीं तो पोस्टर बना दूंगा. मैंन्नू जल्दी है, फ़ालतू की गल ना कर."
रिक्शे वाले के रिक्शे पहिये की कुछ तारें जब टूट गयीं तब दर्द के मारे रिक्शा फाटक के नीचे से निकलने लगा.  रेलबाला चिल्लायी — देख पटरी बहन, ये क्या कर रहा है, अभी ट्रेन आने वाली है और ये रिक्शा अपनी जान जोखिम में डाल रहा है.
पटरीरानी बोली — ये बिहारी इन हालातों में ही नियम तोड़ते हैं और गवर्नरी गुरूर पाले ओवरब्रिज बोलते हैं कि ये बिहारी नियम तोड़ने में अपनी शान समझते हैं. क्या इसी तरह के कुछ दूसरे प्रान्तों से सम्बंधित सूत्रवाक्य नहीं बनने चाहिए?
रेलबाला बोली — बहन तुझ पर गाडी आ रही है, ज़रा अपने नट-बोल्ट सहित तैयार होकर उसे अगले स्टेशन तक सुरक्षित पहुँचाओ.
कुछ देर तक धडाधड आवाज करती एक जनशताब्दी गुजर जाती है. फाटक प्रहरियों के डंडा हटाने से पहले ही रेलबाला और पटरीरानी आगे बढ़ जाती हैं क्योंकि वहाँ रोजाना की तरह प्रांतवाद वाली गालियों की बौछार होने वाली थी.

[शेष अगले अंक में ....]

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

कल्लोमाई को पहचानो

पटरी रानी की बात अब आगे...

"इन गवर्नर साहब से अच्छी तो बस्ती की गलियाँ हैं जिनमें लगी घूरे की ढेरियाँ ऊपर ही दिख जाती हैं और रास्ता भी बनाए रखती हैं। वहाँ तो केवल मच्छर पनपते हैं जो बीमारी फैलाते हैं लेकिन इन पढ़े लिखे सभ्य शहरी मार्गों ने तो पर्यावरण को जो घाव दिए हैं, वो भरने बेहद मुश्किल हो गए हैं। इनसे त्रस्त शोषित तो अपने नासूरों को देख-देखकर आत्महत्या करने की सोचने लगे हैं। चल, तुझे मैं कल्लोमाई से मिलाती हूँ जो कभी गोरी-चिट्टी हुआ करती थी। इन्हीं कल्चर्ड सिटिजन के संपर्क में आकर कोढ़ से ग्रस्त हो गयी। और आज एक कोढ़ी का जीवन जीने को विवश है।"
पटरीरानी और रेलबाला को अपनी-अपनी सड़कों के सिग्नल हरे दिखाई दिए। तभी धडा-धड़ करती दो गाड़ियां निकल गयीं। रेलबाला ने कहा — बहन, ये जो गाड़ियाँ अभी-अभी गयी हैं तुझे मालुम है इनमें एक गरीब रथ था जो गरीब जनता के लिए वातानुकूलित सुविधा के साथ कम किराए में यात्रा कराता है। इसमें प्रायः उन ग़रीबों का आना-जाना है जो अपनी अमीरी में गरीब हैं जिनका आरक्षण गरीबी की बिना जाँच-पड़ताल हुए हो जाता है। चलो कोई बात नहीं। ग़रीबों की जाति की एक ट्रेन तो चली। वरना, दिल्ली में तो गरीब जाति को ही हटाने की मुहीम ज़ारी है।
दूसरी गाडी मालगाड़ी थी जिसमें जमशेदपुर से लोहा-लंगड़ दिल्ली आया है। यहाँ कितने ही किसानों की ज़मीन विकास के नाम पर ज़बरन अधिगृहित कर ली गयी लेकिन इन बड़े उद्योगपतियों का सीमेंट लोहा अधिगृहित नहीं किया जाता। उन्हें विकास कार्यों के समय भरपूर लाभ दिया जाता है। अधिगृहित जैसे कायदे क़ानून केवल गरीब किसान भाइयों के लिए बने हैं।
तभी रेलबाला ने कहा — पटरी बहन, तुम चलते-चलते मुझे इस नाले के पास क्यों ले आई।
पटरीरानी बोली — नहीं बाला, ये नाला नहीं यमुना नदी है। आजकल इसे सभी सड़कें और रास्ते कल्लोमाई कहते हैं। और अब यमुना नदी भी अपना पुराना नाम भूल गयी है। अब ये कल्लोमाई संबोधन पर ही सुनती है।
एक दिन मैंने ऊपर से जाते हुए इसे यमुना कहकर पुकारा तो चुपचाप रही, ध्यान ही नहीं दिया लेकिन तभी विकासमार्ग वाले लोकनायक सेतु ने इसे कल्लोमाई कहकर जोर से सूखे फूलों का गुच्छा फैंका तो इसने झट से सुनकर कहा — "बेटा, ऐसा मत करो, मेरा कोढ़ बढ़ गया है। खुजली होती है, बदबू उठने लगी है। तुम मेरा ईलाज करवा दो। कृपा होगी। अपने रखरखाव वाले ठेकेदार से बोलो मेरा भी उद्धार करे।"
बाला ! तब जाना मैंने इसके दुःख को। अरे, कुछ सालों पहले तक इसमें मैं अपनी शक्ल साफ़ देख पाती थी लेकिन अब तो मुझे मेरी शक्ल भी बदरंग दिखती है।
तभी पटरीरानी ने यमुना नदी को आवाज़ लगाई — कल्लोमाई, रामराम, कैसी हो।
कल्लोमाई — रामराम, बच्चों, 'कैसी हो' कहकर मेरा क्यों परिहास उडाती हो। देखती नहीं हो मेरी दशा। ये कोढ़, ये गंदगी, ये बदबू, अब तो मैं अपने भाई यम से मिलने का सोचने लगी हूँ। यहाँ के लोगों ने तो मेरी बेकदरी कर दी। अब यहाँ पर रहने की इच्छा नहीं रह गयी है। तुम बताओ, कैसी हो? तुम रात-दिन बहुत चिल्लाती हो, तुम्हारा शोर प्रशासन के कान तक पहुँचता या नहीं। पिछली बार तुम कह रही थी कि तुम्हारे नट-बोल्ट ढीले हो रहे हैं। क्या उन्हें बदला गया या नहीं?
पटरीरानी ने कहा — कुछ बदले तो गए हैं लेकिन उनकी गुणवत्ता अच्छी नहीं लगती। एक बरसात-धूप में ही जंगियाने लगे हैं। अपना काम चला रही हूँ। आप बताओ, तुम्हारे कोढ़ और खुजली में कुछ राहत है?
कल्लोमाई — अरे नहीं बच्चों! एक फूल लिपटे अखबार में ज़रूर पढ़ा था कि कुछ दिनों पहले कुछ प्रांत सरकारों ने मेरे ईलाज के लिए अभियान चलाने की बात ज़रूर की है लेकिन देखो ये कब होता है? संगम पर जाकर मुझे पता चला कि गंगा बहन की भी हालत मुझ जैसी होती जा रही है। सैकड़ों नालों ने हमारा हाल खराब कर दिया है। फैक्ट्रियों, कल-कारखानों से निकलता तेजाबी कचरा मेरे कोढ़ में खुजली बनकर आ रहा है। लेकिन आज भी कुछ मेरे भक्तगण मुझमें दुबकी लगाते हैं पर मुझसे उन्हें लाभ पहुंचाने के बदले खुजली जैसी बीमारियाँ लग जाती हैं। क्या करूँ न भक्त मानते हैं न पूँजी के आसक्त लोग ही मानते हैं। देखो, कब तक यूँ जी पाती हूँ। आजकल बड़े-बूढों की वैसे भी कोई इज्जत नहीं रह गयी है। "बच्चो! तुम अपने काम में लगो। आते रहना, मेरे हाल-चाल लेते रहना। मुझे लगेगा कोई तो है मुझसे बात करने वाला।"
कल्लोमाई से विदा लेकर पटरीरानी रेलबाला के साथ आगे बढ़ गयी।
शेष भाग अगले अंक में...

बुधवार, 31 मार्च 2010

तेजू भाई से मुलाक़ात

अब आगे ...

रास्ते में ओवरब्रिज, पुलिया नदी-नाले तो कई मिले लेकिन उन्हें तो दिल्ली के एक घमंडी ओवरब्रिज से मिलना था। दिल्ली शहर में घुसीं और तब देखे उन्होंने मेट्रो दीक्षित के जलवे और ओवर ब्रिजों का नज़ारा।

रेलबाला ने पटरीरानी को उस ओवरब्रिज से मिलवाया। नमस्ते हुई।

रेलबाला ने कहा — ये तेजू भाई हैं, इन के कारण यातायात की गति तेज़ हो गयी इसलिए सभी इन्हें तेजू खन्ना कहते हैं। और तेजू भाई, ये मेरी सहेली है, आपको जानती नहीं थी सो मिलवाने ले आयी।

तेजू खन्ना बोले — ए! तुम मुझे भैया-वैया मत कहो। मैं तुमसे पहले भी मना कर चुका हूँ। मैं दिल्ली की जानी-मानी हस्ती हूँ। मैं समस्त दिल्ली की सड़कों का प्रमुख हूँ। मेरी हैसियत गवर्नर से कम नहीं। कोई बिहारी-शियारी या पुरबिया-शुरबिया होता तो मैं "आम रास्ता नहीं का बोर्ड लगाकर" लात मारके बाहर करता। क्योंकि तुम ब्यूटीफुल हो इसलिए बात कर रहा हूँ। तुम मुझे मिस्टर तेजू ब्रिज कह सकती हो।

तुहें मालूम है — दिल्ली में बस दुर्घटनाएँ क्यों हुईं? इन नोर्थ इंडियंस सड़कों और राजमार्गों ने दिल्ली में घुसकर नियमों का पालन नहीं किया। जगह-जगह क़ानून तोड़े। जहाँ मन आया वहाँ से निकल पड़े और शहरी मार्गों से मिल गए। इनके कारण हमारी यातायात व्यवस्था बिगड़ गयी। एक्सीडेंट बड़े। हादसे हुए। लोग मरे। इल्जाम हम पर आया।

मैं तो कहता हूँ कि 'दिल्ली' देश की ऎसी राजधानी हो जिसकी सड़कों के किनारे मॉल हों, बिजनिस कॉम्प्लेक्स हों। चमाचम लाईटिंग हो। सब्जी मंडियाँ और लेबर चौक जाने वाले रास्तों की ओर सड़कें न जुडी हों।

ब्रिज हों तो अपार्टमेंट्स से, मॉलों से जुड़े। या, ओफिसिज़ कि ओर खुले। पब्लिक स्कूलों की ओर मुँह किये या पिकनिक स्पोटों की ओर बाँह फैलाए। कुछ दिनों में देखना मैं इन ऐरे-गेरे राह चलते रास्तों का दिल्ली में घुसना बंद कर दूँगा। हर रास्ते पर अपना आई कार्ड होगा, साइन बोर्ड होगा। जिन पर नहीं होगा, मिटा दिए जायेंगे।

पटरीरानी सुनकर तिलमिला गयी। बोली — मैं सब जानती हूँ। कौन क़ानून तोड़ता है। जहां फ़ायदा देखा नहीं उसी के हो लिए। क्या मैं जानती नहीं। शहर की सड़कें जितनी अपने को सभ्य कहती हैं उनके भीतर कितने गटर, कितनी नालियाँ बहती हैं। और सबके सब कहाँ जाते हैं, किसे गंदा करते हैं। मुझसे तो नहीं छिपा। बेशक तुम अपने को पौश या संभ्रांत कहो लेकिन तुम जैसे कितनों ही के कारण भूजल की समस्या ने विकराल रूप ले लिया है, बारिश भी होती है तो बाढ़ का कारण बनती है। जहाँ पानी कि ज़रुरत है वहां पानी जाता नहीं। भूजल स्तर नीचे और नीचे आता जा रहा है। उसपर तुम रैनी वैल की बात करके हल निकाल लेने की बात करते हो। तुम एक तरफ तो पर्यावरण हितैषी बनते हो दूसरी तरफ तुम जैसों के ही कारण देश के साफ़-सुथरे पर्यावरण में पान्त्वाद का प्रदूषण फ़ैल रहा है। मैं सब जानती हूँ — इन दिनों कितने पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं। मेट्रो-सिटी बनाने का नाम पर क्या खेल खेला जा रहा है, क्या मैं जानती नहीं। तुम केवल यहाँ पर गाडी कि जगह गड्डी चलाने के हिमायती हो। आने वाले सालों में देश-विदेश कि सड़कों की कबड्डी करवानी है इसलिए इन्हें छोटी-छोटी सड़कों, पगडंडियों और देहाती रास्तों को मिटाने की सूझी। इनसे इनकी इज्ज़त खराब हो रही है। मालूम होना चाहिए कि बड़ी सड़कें तब तक ही बड़ी हैं जब तक छोटी सड़कों और पगडंडियों का वजूद है। तुम घमंड से इतना फूल चुके हो कि धरती के अन्दर पड़ रही दरारों को नहीं देख पाते। कभी चरमराकर गिरोगे तब होश ठिकाने आयेंगे। बनावटी सड़कें, पुल, मॉल सब एक साथ बोलेंगे (नष्ट होंगे) और अपने देसी रास्ते ही तुम्हे राह दिखाएँगे। चल बाला! इस घमंडी की कारिस्तानी से दुखी नदी से तुझे मिलाती हूँ। तब करना इस पर्यावरण प्रेमी से दोस्ती।

शेष अगले अंक में....

रविवार, 28 मार्च 2010

लोहे की सड़क

एक गाँव के किनारे गेहूँ और धान के खेतों से होती हुई दो लम्बी लोहे की सड़क जाती थीं। एक का नाम था — पटरीरानी, दूसरी का नाम था — रेलबाला। उन दोनों सड़कों पर प्रतिदिन कई गाड़ियां आती-जाती थीं। गाड़ियां जब भी उन सड़कों पर आतीं, तो भागती चली जातीं।

एक बार पटरीरानी ने रेलबाला से कहा — बहन सुना है दिल्ली शहर में "मेट्रो" दीक्षित-हिरोइन बनकर अपनी चकाचौंध से सबका दिल जीत रही है। उसके लिए तो काफी धन खर्च किया जा रहा है। उसके रहने के लिए आलीशान, शानदार यार्ड-व्यवस्था हो चुकी है, घूमने-फिरने के लिए खूबसूरत बहनों का संग है। लेकिन हमारी बुरी दशा पर किसी किसी ने विचार नहीं किया, किसी को ममता नहीं आई।

रेलबाला ने पटरीरानी से कहा — हमें तो मुंबई की बार बालाओं की तरह समझ रखा है। कभी भी कोई भी आकर हमें बुराभला कह जाता है। ज़रा सोचो, क्या सच में हमारा जीवन उन बालाओं की तरह नहीं है जिनकी नग्नता 'अश्लीलता की हद' कहकर प्रतिबंधित कर दी जाती है; जेल में, सुधार-गृहों में भेज दी जाती है। दूसरी तरफ इन फिल्मी हीरोइनों की नग्नता कला की मांग कहकर सराही जाती है, फिल्मफेयर अवार्ड पाती है, जिसे सभ्य समाज आत्मसात करता रहा है। इन दोहरे मापदंडों से मुझे काफी चिढ है, खीज है। इस चिढ़ और खीज से मेरा गुस्सा कभी-कभी इतना बढ़ जाता है कि मुझसे लापरवाही हो जाती है और रेलदुर्घटनाएं हो जाती हैं। मुझे लगता है कि बार बालाओं को भी ऎसी खीज होती होगी जिसके कारण उनमे अपराध मानसिकता पनपती है, गुनाह होते हैं, अच्छे-भले घर बिगड़ते हैं।

पटरीरानी बोली — सच कहा बहन, ऎसी भेदभावपूर्ण नीति से तो मन खट्टा हो जाता है और उखड़ने का मन करता है। लेकिन इन बढ़ती दुर्घटनाओं को देखते हुए कोशीश करती हूँ कि जगी रहूँ और अपनी क्षमता से अधिक इन गाड़ियों को सुरक्षित पहुंचाती रहूँ।

रेलबाला ने कहा — हमारे हिस्से का पैसा जब तक हम पर पूरी तरह खर्च नहीं किया जाएगा तब तक हम कैसे जगी रह सकती हैं। बहन चलो, बाद में बात करूंगी, सामने का सिग्नल हरा हो गया है। ट्रेन आने वाली है। उसे सुरक्षित दूसरे स्टेशन तक पहुंचा दूँ। थोड़ी देर में मैं तुझे एक घमंडी ओवरब्रिज से मिलवाने ले चलूंगी।

पटरीरानी बोली — ठीक है, लगता है मेरा भी सिग्नल हरा हो गया, कुछ देर में मुझ पर भी गाड़ी आने वाली है, मैं ज़रा अपने नट-बोल्ट ठीक-ठाक करके तैयार हो जाऊं।

तभी दोनों तरफ से दौडती-भागती गाडिया आने-जाने लगीं। इतना शोर हुआ कि बेचारी दोनों सड़कों की जान निकलने लगी। अभी ना जाने कितनी ऎसी गाड़ियाँ आने वाली थीं।

दोनों ही अपने नट-बोल्टों कि छोटी-छोटी दरारों को बार-बालाओं की चोट समझकर मिट्टी और धूल से भरकर हँसते हुए ओवरब्रिज से मिलने चल दीं।

शेष अगले अंक में...

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

दो शब्द

प्रारम्भ से ही मेरी इच्छा कम बोलने वाले और चुपचाप रहने वाले साथियों से संवाद की रही। धीरे-धीरे यही इच्छा संकोचवश कविता लेखन के दौरान काल्पनिक कथोपकथन के रूप में विकसित हो चली। इसके बाद अर्थोपार्जन के समय व्यावसायिक अनवरतता न रहने से, रुचि व योग्यतानुरूप रोज़गार न मिलने से, ब्रेकेबल सर्विसेज़ के लम्बे ब्रेक काल में मानसिक तनाव से मुक्ति पाने को 'स्वगत कथन' की इच्छा प्रकृति की गोद में जा बैठी। फिर यही इच्छा पेड़-पौधों, पोखर-नदियों, रास्तों, पुल, बाँध पर्वत, मिट्टी... आदि सभी मूक जड़ वस्तुयों से पागलपने की हद तक बात करके सुख पाने लगी। उनमें मानवीय चरित्रों की परिकल्पना करने लगी, उनके कम्पन, उनके ठहराव, उनकी क्रियाओं, उनके परिवर्तनशील रूपों का व्याकरण अनुमानित करने लगी।

काफी समय से इन्हीं सबका पुंजीभूत रूप पुस्तकाकार रूप लेने को आतुर था। और आज वह आतुरता उन सब इच्छाओं को कहानी रूप में इंटरनेटीय ब्लॉग के ज़रिये आपके मोनिटर पर लाने में कुछ विराम पाती है। इसके लिए आभार उन परिस्थितियों और परिवेश का जिसमें कहानी पात्रों के सम्बन्ध में विस्तार से लगातार चिंतन का क्रम बनाए रखा। इनमे दो स्थितियां आज भी योगदान दे रहीं हैं - पहली, चार्टर्ड बस में खिड़कीवाली पिछली सीट जहां ऑफिस आते जाते प्रकृति चिंतन बिना व्यवधान हो जाता है। और दूसरी, कार्यालय में चिंतन की उड़ान भरने का भरपूर अवसर।

अपनी प्रियंवदा का सहयोग और उत्साह वर्धन के बिना इस ब्लॉग को शुरू करना संभव नहीं था। इसके लिए उन्हें ब्लोगर धर्म के नाते धन्यवाद देता हूँ।

आज २७ मार्च २०१०, दिन शनिवार को मैं संकल्प करता हूँ कि जब भी अवकाश मिलेगा "राम कहानी" में कोई-ना-कोई कहानी अवश्य जोडूंगा।

http://raamkahaani.blogspot.com/

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