बुधवार, 28 अप्रैल 2010

खेलगाँव के पिछवाड़े पौधकुमार का जन्म

पिछले साल की ही बात है, दिल्ली के अक्षरधाम के पिछवाड़े जो खेलगाँव बसने जा रहा है वहाँ पर, उसी भूमि पर एक पौधे का पुनर्जन्म हुआ. इस जन्म में उसे नीम की योनी प्राप्त हुई. आसपास के वृक्षों ने उसे खूब प्यार किया. उसके पालन-पोषण का दायित्व और शिक्षा का उचित प्रबंध किया. वृक्ष-समुदाय में लार्ड मेकाले की शिक्षा-नीति के अनुसार शिक्षा नहीं दी जाती, वहाँ परोपकारिक-शिक्षा नीति के अनुसार सभी वनस्पतियाँ बिना ऊँच-नीच, बिना जाति-पाति, बिना भेद-भाव के शिक्षा गृहण करती हैं. पौधकुमार बचपन से काफी होनहार थे, उनके चिकने पत्ते इसका प्रमाण थे. कहते भी हैं कि "होनहार बिरवान के होत चीकने पात". शीशम तरु ने पौधकुमार को अपने आस-पास रहने वाले पेड़-पौधों के नाम और संबोधनों की जानकारी दी.

जैसे "अ-ल...ल..लला...ला.! इधर देखो, ये तुम्हारे जामुन अंकल हैं..., और ये तुम्हारी इमली चाची... और मैं तुम्हारा शीशम ता..ऊ.    ताऊ जी को ताऊ बोलो.. देखो हँस दिया."



उसकी माँ यमुना किनारे किसी तरह अपने कुनबे को बचाए खड़ी थी. वहाँ आने-जाने वाले हर थके-मांदे जीव-जंतुओं को अपनी छाया, आश्रय देकर उनकी सेवा में दिन-रात लगी रहती और अपने वृक्ष-जीवन को सफल कर रही थी. बढ़ती आयु में जहाँ लोग अपना समय प्रभु-भक्ति के नाम पर व्यर्थ करते हैं वहीँ वह अपना समय परोपकार में लगाए थी, जिसे वह ईश्वर आराधना से कमतर नहीं आँकती थी.



पौधकुमार के समीप उनके गुरुजन सदा उसकी बाल-जिज्ञासाओं को अपने उत्तरों से शांत करते रहते. बालकों के सवालों के उत्तर यदि सुलझे हुए दिए जाएँ तो यही उत्तर उनके संस्कारों की भूमि तैयार करते हैं. संस्कार अलग दी जाने वाली कोई दवाई या बूटी नहीं है और ना ही कोई शिक्षा है जिसे किसी आयु विशेष का इंतज़ार रहता है. सभी आस-पास के यार-दोस्त उस पौधकुमार को "नीमन" नाम से पुकारते हैं. हालाँकि अब वह किशोर होकर अपने हाथ-पाँव फैलाने की तैयारी में लगा है. जिसके बारे में आगे किसी कहानी में बयान किया जाएगा. अभी तो उसके पहले वर्ष की जीवन की झाँकी देख ली जाए.



एक बार की बात है, जब उसकी गर्दन कुछ ऊँचा उठनी शुरू हुई तो उसे दिखने वाली हर वस्तु आकर्षित करने लगी और उसके बारे में उसने अपने समीपस्थ पालकों [गुरु वृक्षों] के सामने सवालों की झड़ी लगानी शुरू कर दी.

नीमन पूछता — जामुन अंकल! वो क्या है?
जामुन — वो बेटा! सफेदे का पेड़ है.
नीमन — अंकल! वो क्या है?
जामुन — वो बेटा! कीकर का पेड़ है.
नीमन — अंकल! वो क्या है?
जामुन — वो बेटा! नीम का पेड़ है? तुम्हारे वे दूर के दादाजी हैं. अब काफी बूढ़े हो चले हैं.
नीमन — मेरे दूर के दादा जी, मुझसे इतनी दूर क्यों खड़े हैं?
जामुन — बेटा! हमारे लिए दूर-पास कोई मायने नहीं रखता. हम पास रहें या दूर, एक सा ही व्यवहार करते हैं. देखो वे तुम्हारी तरफ प्यार से देख रहे हैं. उन्हें प्रणाम करो. 'कहो दादाजी नमस्ते!'
नीमन — [जोर से] दादाजी... नमस्ते!
जामुन — तुम धीरे से भी बोलोगे तो वे तब भी तुम्हारी आवाज सुन लेंगे.
नीमन — [एक बिजली के खम्बे की तरफ इशारा करके] अच्छा अंकल! वो कौन-सा पेड़ है?
जामुन — बेटा, वो, सड़क के पार वाला.... वो पेड़ नहीं हैं, वो तो आदमी द्वारा खड़े किये पोल भाईसाहब हैं. जो रात को रोशनी करने का काम करते हैं. वहाँ कभी.... आपके परिवार के कई मौसियाँ, मामा आदि हुआ करते थे. अब वे नहीं रहे.
नीमन — मेरे मामा, मौसी? अब वे कहाँ गए?
जामुन — बेटा, वे अपने पुनर्जन्म के इन्तजार में हैं. कुछ महीनों पहले ही तो उनकी सामुहिक ह्त्या कर दी गयी. बेटा तुम नहीं समझोगे. अभी तुम छोटे हो. इस बारे में कभी और बताउंगा.

नीमन —  अंकल, वो लंबा पेड़ कौन-सा है?
जामुन — बेटा, वो पेड़ नहीं है, वो आपार्टमेंट है. [जामुन की आँखों में आँसू भर आते हैं] वहीँ तो तुम्हारे ...[फफक-फफक कर रोने लगता है] ... वहीँ तो तुम्हारे दादाजी का बगीचा हुआ करता था. "वैद्यराज नीम की वाटिका" नाम था, उसे उजाड़ कर ही तो खेलगाँव बसाया जा रहा है. जहाँ आदमियों के क्वालिफाइड बच्चे रहेंगे. बेटा मत पूछो, फिर कभी बताउंगा तुम्हारे दादाजी के बगीचे के बारे में.
नीमन — अच्छा अंकल आप रोना नहीं. बस उस मोटे पेड़ के बारे में और बता दो? क्या वो पेड़ नहीं, अपार्टमेन्ट है या फिर कुछ और है?
जामुन — बेटा, तुम बहुत अच्छे हो, कम-से-कम मेरा रोना तुम्हें दिखाई देता है. बेटा, वो मोटा-मोटा पेड़ नहीं और ना ही कोई अपार्टमेन्ट है. वो तो आदमियों के धर्म और आस्था का केंद्र अक्षरधाम मंदिर है. जहाँ लोग अपने पापों का प्रायश्चित करते हैं और परोपकार करने के झूठे संकल्प करते हैं. ये सब एक-दूसरे की देखा-देखी, सामाजिक प्रदर्शन करते हैं कि वो आस्तिक हैं, ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करते हैं. ये आदमियों की जीवन शैली है हमारी नहीं. हमारे जीवन का उद्देश्य तो सभी का परोपकार है. चाहे वो हमारी वृक्ष जाति हो अथवा मनुष्य जाति हो अथवा अन्य कोई भी प्राणियों का वर्ग हो हम बिना भेद-भाव के छाया, फल, आश्रय, औषधि, आदि देते हैं. अब काफी समय हो गया बेटा तुम जमीन से कुछ पानी-खुराकी खींचो और अपने तने में पहुँचाओ. तुम्हारा हलक सूख रहा है.
नीमन की आँखे बंद होने लगती हैं. शायद उसे नींद आ रही है. पहले थोड़ा सो ले फिर उसके सवालों की बौछार फिर शुरू हो जायेगी. तब तक हम विश्राम लेते हैं. विदा.


[शेष अगले अंक में]
इस कहानी को लिखते हुए मेरे एक स्थान पर स्वयं आँसू आ गए. मैं इस रोने को उन वृक्षों को श्रद्धांजलि रूप में अर्पित करता हूँ जो अब विकास प्रक्रिया की भेंट चढ़ चुके हैं. यही है मेरा बलि-वैश्य यज्ञ.

1 टिप्पणी:

महामूर्खराज ने कहा…

मित्र आपकी रचना की बात ही निराली है मैं तो अचंभित हो जाता हूँ सधारण से साधारण चीजों मे आप तो जान डाल देते हैं लेकिन उसमे भाव रूपी आत्मा का का भी अस्तित्व होना वाकई आपकी लेखन कला काबीले तारीफ है। कई दिनो से दूसरी किश्त का इंतेजार कर रहा हूँ आज कुछ ज्यादा ही अधीर होगया सो विनती करने आपके पास पहुँच गया

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