मंगलवार, 28 सितंबर 2010

जात पे ना पात पे, गीला मारो लाठ पे

पट्टासिंह के सरदार बनने से बहुत पहले से काटकेरेस पार्टी का एक नारा था — "जात पे ना पात पे, गीला मारो लाठ पे". ये नारा पीढ़ियों से चला आ रहा था. पूँछउठी अडंगी की फैमिली ने अपने जीवनकाल में काफी जिहालत उठायी थी. असल जिहालत जिसने देखी थी और जिहालत को दूर करने की असल कोशिशें जिसने कीं उन कुत्ते भाइयों की टोली मौत के आगोश में जा चुकी थी.

अब बची थीं दो टोलियाँ — पहली, जाँबाज कुत्तों की 'सरदारी' से उदासीन टोली जो सारी ताकत इलाके की आजादी में झोंक चुकी थी और जो अब पूरा आराम चाहती थी. दूसरी, मरे हुए जांबाज कुत्तों की शहादत गाथा गाने वाली चेहरा दिखाऊ फायदा उठाऊ टोली. 

भारतीय कुत्ता समाज की आजादी के लिए फिरंगी कुत्तों की टोली को कितने ही जांबाज कुत्तों ने अपनी जान की परवाह किये बगैर वापस उनके इलाके में खदेड़ दिया था. लेकिन इस किये का मेडल मिला काटकेरेस पार्टी के अगुआओं को. जिनमें मुख्य थे — जहर उगाल 'जहरू', बाल बढ़ाये 'बहरू', झब्बा झब्बा 'झबरू'. इन सभी कुत्तों को हांकती थी एक बाबाजी की लाठी. वो बाबा को कम उनकी लाठी को ज़्यादा पसंद करते थे क्योंकि उनके मरने के बाद वो लाठी उन सभी काट के रेसियों के लिए 'गीला' मारने के काम जो आने वाली थी. 

फिरंगी कुत्तों के जाते ही भारतीय कुत्ता समाज में मौजूद कटखनी लीग और काट के रेस पार्टी ने अपने-अपने अगुआओं को इस पूरे इलाके का सरदार बनाना चाहा. इसलिए काट के रेसियों और कटखनी लीग ने कुत्ते भाइयों की अंदरूनी तौर पर जात और मजहबी मानसिकता का फायदा उठाते हुए कुत्तीय प्रजा को अपने-अपने समर्थन में करना शुरू कर दिया. बाहरी तौर पर उन्होंने सदा जात-पात और मज़हब को मुँह-भौंह सिकोड़ते हुए नकारा, नफरत की. 

आजादी के लिए केवल जांबाज कुत्तों की कोशिशें ही काफी नहीं रही थीं. उसके लिए जहरू जी ने अंदरूनी कोशिशें ज़ारी रखीं हुई थीं. जैसे फिरंगी वायसराय डॉग की बीबी मिसेज़ डॉगी को अपने पूरे विश्वास में ले लिया. ऐसे में डॉग साहब को अपने सुखद गृहस्थ जीवन में ख़तरा लगा तो उन्होंने वापस अपने इलाके में लौटना ही ठीक समझा. वैसे भी अब सब लुट चुका था. ऐसे में वो किस मुँह से रुकते. वो पराये इलाके में घुसपैठिया बनकर नहीं रहना चाहते थे. वो नहीं चाहते थे कि पूरी पाने के चक्कर में उनकी पानी आधी भी चली जाए. ये 'आधी' उनकी अपनी जीवनसंगिनी थी जो अब पराये प्रेम के व्यापार में लिप्त हो चुकी थी. 

इक तरफे हमले तो वो झेल रहे थे और काफी समय से झेलते भी आए थे जिसके लिए उनके पास एक 'हड्डी मंत्र' था — हड्डी डालो, राज करो. लेकिन इस अंदरूनी हमले की उम्मीद उन्हें नहीं थी. इस हमले को वायसराय साहब झेल ना पाय. ये पूरा इलाका छोड़ने के सिवाय कोई चारा न रहा था. इस तरह कुत्तों का भारतीय इलाका आज़ाद हुआ था. 

ऐसे में बाबाजी की लाठी जिसे सभी पाना चाहते थे. कटखनी लीग ने माँगी लेकिन काट के रेसियों ने उस पर अपना हक़ जताया. दोनों की लड़ायी का फायदा एक तीसरे 'GOD ' नामी उलटे कुत्ते ने उठाना चाहा. अँधेरे में उनकी लाठी छीनकर भागने की कोशिश की लेकिन लाठी की जगह उनकी टांग मुँह में आ गयी और वे नहीं रहे. 

आखिरकार लाठी जहरू के पास ही आ गयी. लेकिन कटखने कुत्तों ने आज़ाद हुए पूरे इलाके में से एक बड़े हिस्से को अपनी गिरफ्त में ले लिया और उसे नया नाम दिया 'फाकिस्तान' इधर जहरू भारतीय इलाके का अगुआ बना उधर फाकिस्तान इलाके का सरदार जिद्दा बना. जहरू के बाक़ी साथी कुत्ते अपने-अपने हुनरों से उसे मदद देने में लग गए. इस तरह जहरू की सरदारी चल निकली. 

अब जहरू को अपने इलाके में फैली छुआछूत, जातपात समाप्त करनी थी और इसके लिए जहरू ने कुत्तम मीनार के सामने ही बाबाजी की लाठी गाड़ दी और उसे लाठ नाम दिया और पूरे भारतीय इलाके के सभी कुत्तों से अपील की — 'जात पे ना पात पे, गीला मारो लाठ पे'.  इस लाठ पर किसी भी जात का कुत्ता गीला पार सकता है क्योंकि लाठ चिकनी है. इस कारण गीले [वोट] का लाभ सीधा ज़मीन [आम जन] को मिलेगा. एक कतरा भी बेकार नहीं होगा. दूसरी बात सभी कुत्तों के 'गीला मार' की एक बराबर कीमत है इसलिए आज से कोई कुत्ता कम या ज़्यादा नहीं. सब बराबर होंगे. कोई भी कुत्ता जातपात जैसी बुराइयों में ना बंधे और ना ही धार्मिक पागलपन को राजनीति में लाये, और ना ही धर्म की फालतू हरकतों से कोई इलाके के विकास मामलों में दखलंदाजी करे. 

एक बात और, मुझे पिल्लै बहुत पसंद हैं, इसलिए उन्हें इन बुराइयों में बिलकुल ना घसीटना. मैं एक बिना जाति वाला देश बनाना चाहता हूँ. इसके लिए मुझे काफी समय लग सकता है. इसलिए हर बार चुनाव में मुझे ही सरदार चुनें. अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह भारतीय इलाका पूरे का पूरा गर्त में जा पहुँचेगा. इस समय इलाके में ऐसा कोई कुत्ता नहीं जो इलाके की बागडोर संभालने योग्य हो. मेरी अंदरूनी नीतियों ने इलाका आज़ाद कराया था और आगे भी मेरा पिल्लाप्रेम, जो मेरी अंदरूनी नीति का ही एक हिस्सा है, ही मुझे इलाके के विकास में कामयाबी दिलाएगा. 

ये कहकर उन्होंने अपने परिवार को लगाने के लिए एक अमर नारा दिया — जय हिंद. 



रूपक-कथा के शब्दों का विश्लेषण :

पूँछउठी — कुत्ता समाज में पूँछउठी प्रायः सम्मानित कुतियाओं के नाम से पूर्व लगाया जाता है. जैसे कि श्रीमती मनुष्य समाज में लगाने का रिवाज है. 
— ये कथा 'पट्टासिंह' कई कथाओं में से एक है. 
— जितने नाम प्रयुक्त हैं वे किसी न किसी की चरित्र-छाया लिए हैं.
— कुछ विचारक देश की आजादी में 'जहरू जी' के योगदान को पूरी तरह नकारते हैं. उन्हें क्या पता 'अंदरूनी पॉलिसी' के लाभ.


7 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

बेहद खूबसूरत प्रस्तुति। धर्म और देश के ठेकेदार को आइना दिखाती बेहतरीन पोस्ट।

VICHAAR SHOONYA ने कहा…

मैं इस रचना को पहले भी पढ़ चुका हूँ. दुबारा पढवाने के लिए धन्यवाद.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

मित्र V4-शून्य,
आपकी ऎसी ही टिप्पणियाँ कुछ नया सोचने को विवश करती हैं.
प्रेमचंद ने कहा है — "यदि पुरानी बात भी उत्साह से कही जाए तो वह नयी-सी लगती है."
शायद मेरे उत्साह में कमी रह गयी.
_________________________
ओल्ड इस ओल्ड फॉर ओल्ड फ्रेंड.
ओल्ड इस न्यू फॉर न्यू फ्रेंड्स.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

उचटता कविता से जब 'जी'
कल्पना कर लेता फर्जी.
सौम्य सुन्दर इव सूर्यमुखी
आपका खिलना दिव्या जी.

Smart Indian ने कहा…

होइहै वही जो राम रचि राखा
कोकहिं तरक बढावै साखा॥

कुमार राधारमण ने कहा…

कुत्ते को प्रतीक बनाकर भारतीय राजनीति पर की गई आपकी चर्चा बहुत मज़ेदार है।

Dhananjay Sharma ने कहा…

बेहद खूबसूरत

http://raamkahaani.blogspot.com/

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