संस्मरण लेखन का पहला प्रयास, 1993
मेरा सामान्य व्यक्तियों के प्रति अनुपेक्षा का भाव सदा से नहीं रहा। सामान्य और विशेष व्यक्ति होने का मापदंड, मेरी समझ से, संतोष और साधन-सम्पन्नता की मात्रा पर आधारित है। गुणों को तो प्रायः गौणता ही दी जाती रही है। वैसे प्रत्येक स्थान अपने आप में विशेषता लिए होता है, किन्तु मान्यता यही है कि ग्राम्य जीवन 'सामान्य' और नगरीय जीवें 'विशेष' होता है। पर यह आवश्यक नहीं कि ग्राम्य परिवेश में पला व्यक्ति सामान्य ही हो या नगरीय परिवेश जिया व्यक्ति विशेष। असाधारणताएँ किसी सामान्य में भी खोजी जा सकती हैं -- दृष्टि चाहिए। साधनहीनता में भी प्रसन्नता का भाव जहाँ ग्रामीणों में देखा जा सकता है, अन्यत्र नहीं। नगरीय जीवन तो स्वार्थ साधने की प्रतियोगिता मात्र है। 'उपेक्षा और तिरस्कार मिलने पर भी ईश्वर तक से शिकायत न होना' क्या विशाल हृदयता का द्योतक नहीं? ईश्वर दिखे न दिखे, फिर भी उसके होने में अटूट विश्वास; वह भला करे न करे, फिर भी उसमें प्रगाढ़ आस्था -- क्या मात्र मूर्खता ही है; अपनी संस्कृति का सच्चे अर्थों में पोषण नहीं, परम्पराओं को जीवित रखने का सर्वोत्तम माध्यम नहीं? अवश्य है। सभी वही नहीं जो दिखते हैं, अपितु वे भी हैं जो कथित सभ्यताओं का निःस्वार्थ सम्मान किया करते हैं। 'सौंदर्य किसका कहाँ विकसित हो जावे?' --यह प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव पर निर्भर करता है। यह बोध किसी को नगर के ऊँचे-ऊँचे भवनों की अट्टालिकाओं को देख होता है तो किसी को खेत-खलिहानों, पशुओं, पोखरों, जंगलों, छप्पर वाले घरों की दीवारों पर पथे उपलों और बिटोरों आदि के देखने मात्र से हो जाया करता है।
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'वसुधैव कुटुंब' का भाव मुझे अब अधिक प्रिय और सार्थक-सा लगने लगा है। ना जाने क्यों, अब वे सभी बातें समाप्त होती जा रही हैं जो मुझमें कुछ पहले तक हुआ करती थीं -- संकुचित विचार, अंग्रेजों और मुसलमानों के प्रति घृणित भाव, दक्षिण भारतीयों के बोलने के ढंग पर मज़ाक बनाना, श्रीलंका के आदिम लोगों को राम कथा के आधार पर कल्पना से राक्षसी प्रवृत्ति का मान बैठना।
अनजाने में किसी का कोमल-स्पर्श भी प्रेम का कारण बन सकता है। मुझे याद है; जब कड़ाके की ठण्ड थी, रात्रि में मैं एनी अपरिचित छोटे-बड़े साथियों के साथ ऊँघते हुए बस में यात्रा कर रहा था, तब मेरी ही सीट पर एक ठिठुरते बच्चे के कोमल स्पर्श ने मुझे उसे भी अपने कम्बल में छिपा लेने को बाध्य कर दिया था। उसने भी उस अँधेरे में मेरे आलिंगन को सहजता से स्वीकारा था। उस रात उस बच्चे के कोमल स्पर्श ने मुझे जो सुख की नींद सुला दिया था, सुबह होते ही वह सुखानुभूति जुगुप्सा में परिणत हो गयी, जब मैंने सुबह के हलके प्रकाश में कम्बल और उसकी शॉल में से उसके पैरों को पोलियोग्रस्त पाया। तब मुझे बच्चे की विकलांगता मेरी सुखानुभूति का परिहास करती प्रतीत हुई थी। बच्चा जाग गया था। वह मेरे तिरस्कार भाव का भास् पाते ही स्वयं की शॉल में सिमटकर बैठ गया। हमारी बस शिविर स्थल पर शीघ्र पहुँचने के लिए दौड़ी जा रही थी। बाक़ी शिविरार्थी-साथी अपनी-अपनी रजाइयों-कम्बलों में दुबके ऊँघ रहे थे। कुछ एक मेरी ही भाँति अपने सामीप्य से गरमाहट और स्पर्श का घृणित आनंद लेते हुए जान पड़े। --- यह घटना मुझे तब तक आत्मग्लानि का भास कराती रही थी जब तक कि जीवन की एनी मधुर स्मृतियों ने इसे विस्मृत न कर दिया। लेकिन कुछ मधुर स्मृतियों का प्रारम्भ तो मधुर है पर उसका दुखांत एक दूसरी आत्मग्लानि से परिपूर्ण घटना का स्मरण करा ही देता है। ..... उस विकलांग बालक का शिविर में आने का औचित्य मुझे तब समझ आया जब मैंने उसे हाथों के बल दौड़ते-भागते देखा। उसके हाथ ही पैर थे। यह शिविर विशेषतः शस्त्र-शिक्षा के लिए लगाया गया था।
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नृत्य की आरंभिक शिक्षा मात्र लेकर अचानक चामिला का स्वदेश लौट जाना मुझे खला था। 'नमस्ते' के अतिरिक्त उनसे कभी कुछ बात नहीं हुई। लेकिन अब मुझे लगता है, मैंने मौन भाषा में उनसे काफी-कुछ बातें की हैं। कवि-ह्रदय के लिए चामिला पद्मनी श्रेणी की सौम्यमुखी सिंघली व आंग्ल भाषी कन्या थी। वे सूर्या से तो सिंघली में ही बातें करती, किन्तु मुझे उनकी मौन-भाषा सबसे अधिक प्रिय थी। ...
शेष ... फुर्सत मिलते ही